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________________ २७० श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और अथ अहो देखो! अनंतज्ञानादि चतुष्टय या आत्मक मोक्ष के अभिलाषी पुरुष-देह के होने पर भी परिग्रह है । इसीसे अथवा ऐसा जानकर सर्वज्ञ वीतरागदेवने ममत्वभाव रहित शरीरक्रिया के त्याग का उपदेश किया । क्या अन्य भी परिग्रह हैं ! ऐसा तर्क भी होता नहीं । जहां शरीर को भी अपना मानना छूट गया-वहां पर अन्य की कथा छोड़ो। शरीर तो पर है ही । इसकी कथा छोड़ो। जिन भावों द्वारा शरीर में निज कल्पना होती थी तथा पुत्रकलत्रादि में रागादि परिणाम होते थे उन परिणामों को अपनाना होता था। उसे भी त्यागने का उपदेश है । यह भी छोड़ो। जिन के द्वारा संसार उच्छेद का उपदेश मिलता था, उनमें भी ममता का निषेध बताया है। अन्य कहां तक कहें। श्री १०८ आचार्य कुन्दकुन्द देवने तो यहां तक पंचास्तिकाय में लिख दिया हैं कि भगवान् का उपदेश है-यदि साक्षान्मोक्ष की अभिलाषा है, तब हम में भी अनुराग छोड़ो (त्यागो)। यह भी कथा त्यागो। मोक्ष में भी अभिलाषा करना मोक्ष का बाधक है। अथ जिन्हें संसार-दुःख निवारण करना इष्ट है तो सर्व पदार्थों का संपर्क त्यागें । सम्पर्क-त्याग से तात्पर्य यह है कि जो हमारी निजत्व की कल्पना होती है वह न हो । पदार्थों का सम्पर्क तो रहेगा, क्यों कि लोक तो षड् द्रव्यमय है । इस लोक में ६ द्रव्य. घृत घट की तरह भरे हुये हैं, वे सर्व पदार्थ आत्मीय-आत्मीय अनंत धर्मों के साथ तादात्म्य संबंध से अनुस्यूत हो रहे हैं। __ सूक्ष्मदृष्टि से विचार किया जावे तब जितने गुण हैं वे सर्व गुण अपने २ परिणमन के साथ तादात्म्य संबन्ध रखते हैं। सर्व जुदे २ हैं। सर्वका अविष्वग्भाव संबंध हैं । इसी संबंध से उन सर्व के पिण्ड को द्रव्य कहते हैं । इन द्रव्यों में दो द्रव्य यानी जीव और पुद्गल-इन दोनों में विभाव नाम की शक्ति है, जिसके सम्बन्ध से दोनों की विलक्षण अवस्था हो जाती है । इसी का नाम संसार है। जब आत्मा की अवस्था संसार होती है तभी आत्मा अपने स्वरूप को विकृत अनुभव करता है । यह कहना अन्यथा नहीं। आप ही से पूछते हैं । जब आप मिश्री को चखते हैं, तब मीठे रस का अनुभव करते हैं । और यदि मीठे रस के लालची हुये, तब कहना ही क्या है ! फूले नहीं समाते । यहां पर थोड़ी दृष्टि लगाइये । क्या ज्ञान मीठा हो गया ! ज्ञान तो चेतना का पर्याय है । चेतना अमूर्तिक है। कैसे मूर्ति-परिणमन को प्राप्त हुवा ! तब यही कहना पड़ेगा कि जैसे दर्पण में मुख झलकता है । क्या दर्पण में मुख चला गया ? नहीं गया। मुख के सान्निध्य को पाकर दर्पण का परिणमन हो गया ! मुख से भिन्न वह परिणमन है। इसी प्रकार मिश्री का मीठापन मिश्री में है। किन्तु इन्द्रियजन्य ज्ञान में ऐसा ही होता है । यही कारण है जो इन्द्रिय
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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