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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और वीरमाता के शूरवीर पुत्र को अध्यवसान भाव होता है। वैसे 'वंद्यासुतं हिनस्मि' यह भी भाव हो जावे । अतः अध्यवसान निवारण के लिये बाह्य वस्तु के त्याग की भी परमावश्यकता है।
__ अध्यवसान भावके अनुकूल बाह्य कार्य हो-यह नियम नहीं । जैसे हमने यह अध्यवसान किया कि इस को संसारबंधन हो, वह मुक्त हो जावे । परन्तु उन जीवोंने वैसा भाव नहीं किया; अत एव न वह बंधा और न अन्य छूटा । और हमने तो अध्यवसान भाव नहीं किया कि अमुक बंध को प्राप्त हो तथा अमुक मुक्त हो और उनने वैसे कारण मिलाये कि जिसे वह बंध गया और अन्य मुक्त हो गया।
अध्यवसान भाव ही संसार का जनक है । जिन को संसार इष्ट नहीं, उन्हें संसार का कारण अध्यवसानरूप अन्तरंग परिग्रह को त्यागना चाहिये । साथ ही अध्यवसान में जो विषय पड़ता है उसे तो नियम से त्यागना ही चाहिये । केवल वस्तु में कुछ नहीं होता । समागम से ही यह संसार होता है । जैसे केवल परमाणु में कुछ विकृति नहीं । और जब वे ही परमाणु एक-दूसरे से सम्बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं, तब शब्द, बन्ध, स्थूल, सूक्ष्म, संस्थानादि अनेक पर्यायों के रूप में परिणमित हो जाते हैं।
__ जैसे स्फटिक मणि स्वयं स्वच्छ स्वभाववाली है, परिणमनशील है, स्वयं केवल लाल परिणमन को नहीं प्राप्त होती । परद्रव्य के द्वारा ही वह स्वयं भिन्नरूप (रागादि) परिणमन करती है । परद्रव्य का सम्बन्ध जैसे स्फटिक मणि को स्वच्छ स्वभाव से च्युत कर उसे भिन्न रूप ( रागादि ) परिणमन करा देता है, ऐसे ही आत्मा परिणमनशील है-स्वच्छ स्वभाव है। केवल स्वयं रागादिरूप नहीं परिणमता, परन्तु परद्रव्य के निमित्त को पाकर रागादि रूप परिणमन को प्राप्त होजाता है तथा अपने स्वच्छ स्वभाव से च्युत हो जाता है ।
परद्रव्य भी स्वयं ज्ञानावरणादि रूप नहीं परिणमता। वह भी जीवके रागादि परिणामों का निमित्त पाकर मोहादिरूप परिणमन को प्राप्त हो जाता है । आनादिकाल का यह सम्बन्ध है। किन्तु बीजवृक्षवत् यदि दग्धबीज हो जावे, तब फिर वृक्ष नहीं होता । इसी तरह यदि रागादि भावरूप बीज दग्ध होजावे, तब भवांकुर न हो । अतः जिन्हें यह संसार दग्ध करने की अभिलाषा है, उन्हें उचित है कि वे रागादि त्यागें । केवल गल्पवाद से कुछ न होगा। जैन सिद्धान्त में अल्प भी परिग्रह मोक्षमार्ग में बाधक है ।
श्रीकुन्दकुन्द आचार्यने तो यहाँ तक लिखा है कि अल्प भी परिग्रह बन्ध का कारण है। तथाहि-गाथा
हवदि ण हवदि बंधो मेद हि जीवेऽथ कायचेहम्मि । बंधो धुवावधीदो इदि सवणा छंडिया सर्व ।