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________________ संस्कृति अपरिग्रह । २६३ पंडितजीने एक श्लोक लिखा और कहा कि इसे याद कर लो, फिर चले जाओ। मैंने जब श्लोक देखा तो यह था : उपाध्याये नटे धूर्ते कुट्टिन्यां च तथैव च । माया तत्र न कर्तव्या माया तैरेव निर्मिता ॥ मैं शीघ्र ही भाव समझ गया। मैंने नम्र शब्दों में महाराज से कहा-" महाराज ! अपराध हुआ, क्षमा प्रार्थी हूं। उत्तरकाल में अब ऐसा अपराध न होगा।" श्री मंत्रीजीने कहा-"जाओ, हम प्रसन्न हैं। क्यों कि मैंने निर्माय अपराध स्वीकार किया था। मथुरा अधिष्ठाता के पास पत्र आया कि इस छात्रको ॥ शेर दुग्ध दिया जावे। विशेष क्या लिखें ! मायाचारी पुरुष अपने अनिष्ट को न गिन महादुःखी रहते हैं । ( इति माया परिग्रह ) लोम परिग्रहका स्वरूप... अब लोभ कषाय के उदय में यह पर पदार्थ को अपनाने का प्रयत्न करता है । यद्यपि परवस्तु हमारी नहीं, परन्तु लोभ कषाय में यह भाव आजाता है। आजन्म उससे सम्बन्ध नहीं त्यागना चाहता । लोभ के वशीभूत हो कर अपने गुरु जनों से भी नहीं चूकता । यदि लोभ कषाय न हो, तब यह जीव दुर्गति का पात्र नहीं होवे । विषयों में प्रवृत्ति, धन का संग्रह आदि लोभ ही के तो पर्याय हैं । अन्य की ही कथा छोड़ो। लोभी मनुष्य अपने शरीर के लिये पुष्टकारी पदार्थों का सेवन नहीं कर सकता। यदि किसी को धन देने से महोपकार होता है, परन्तु लोभी मनुष्य के भाग्य में यह कहाँ, वह लोभ नहीं छोड़ सकता। यदि उसका बालक बीमार हो जावे, स्त्री बीमार हो जावे, आप स्वयं बीमार हो जावे, तब उसको द्रव्य देना पड़ता है । बने वहाँ तक वह परमार्थ औषधालय ही से औषध लाकर काम चलावेगा । यदि द्रव्य व्यय करके शिक्षा मिलती होगी तो वह न लेकर, जहां बालकों से फीस नहीं ली जाती है वहाँ प्रबन्ध करेगा । वहाँ बालक को भेजने में संकोच न करेगा । ऐसा लोभी लोम के वशीभूत हो कर निमन्त्रणादि में मर्यादा से अधिक भोजन कर अजीर्ण रोग की वेदना सहन कर महान् दुःख का पात्र होता है। एक उपाख्यान इस विषय में है: चार चोर चोरी करने गये । और वे १०००००) एक लाख रुपये का माल लाये । वे जहां के थे जब वह ग्राम २ मील रह गया, तब उन्होंने विचार किया कि कुछ भोजन कर के ही घर जाना चाहिये । दो आदमियों से कहा, " बाजार से भोजन लाओ। सानन्द से भोजन कर के शाम को घर चले जावेंगे " दो आदमी परस्पर जल्प करते २ बाजार में
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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