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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ दर्शन और दैवयोग से एक दिन एक बंगाली छात्र से शास्त्रार्थ हुवा और बंगाली छात्रने उसे पराजित कर दिया । वह पराजित हो कर गंगा में डूब कर मर गया । यह गप्प नहीं । हाथरस में श्री हरजशरायजी महाशय बड़े भारी नैयायिक थे । यह उनके शिष्य की कहानी है । ( इति मान परिग्रह ) माया परिग्रहका स्वरूप - अब मायाकषाय के सद्भाव में यह जीव नाना प्रकार के छलकपट करता है । मन में कुछ है, बचन में कुछ है और काया के द्वारा अन्य ही हो रहा है । किसी को पता नहीं क्या करेगा। क्रोधी व मानी से जीव अपनी रक्षा कर सकता है । परन्तु मायावी से रक्षा होना अत्यंत कठिन है; क्योंकि उसका व्यवहार सर्वथा अन्तरङ्ग के विरुद्ध है । जैसे बक ( बगुला ) इस प्रकार शनैः शनैः गमन करता है कि देखनेवाले को यह भास ही नहीं होता है कि इससे किसी प्राणी का घात होगा । परन्तु होता क्य! है ? वह मछली आदि जन्तुओं को पकड़ लेता है । यही हाल ' मायावी ' का है । जो ऊपर से महान् पुरुषों के अनुरूप आचरण करता है । जिसके आचरण से अच्छे २ मनुष्य उसके प्रशंसक बन जाते हैं । फल यह होता है कि अन्त में उसके मायाजाल में फंस कर प्रशंसक को विपत्ति - महार्णव में गोते लगाने पड़ते हैं । मायाचारी की प्रवृत्ति सर्वथा विरुद्ध रहती है । उसे यह भान नहीं कि अन्त में भण्डा-फोड़ हो ही जावेगा । उसका इस ओर लक्ष्य नहीं होता । लक्ष्य हो तो माया क्यों करे? मैं स्वयं अपने किये मायाचार की कथा कहता हूं । 1 / मैं जिन दिनों मथुरा में अध्ययन करता था, उन दिनों श्रीमान् स्वर्गीय पण्डित गोपालदासजी महाविद्यालय के मन्त्री थे। मैं उन दिनों चौरासी पर अध्ययन करत । था । पं० ठाकुरप्रसादजी, “ वैयाकरणाचार्य, वेदान्ताचार्य " जैन महाविद्यालय के प्रधानाध्यापक थे । पण्ड नरसिंहदासजी धर्मशास्त्र के अध्यापक थे। मेरे मन में यह बात आई कि श्री बाईजी के पास बुंदेलखण्ड जाना । छुट्टी मांगी, नहीं मिली । मनमें आया कि ऐसी मायाचारी करो कि जिससे छुट्टी मिल जावे | मैंने एक पत्र बाईजी के नाम का लिखा - ' बेटा ! आशीर्वाद । मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं । तुम छुट्टी लेकर १५ दिन के लिये चले आवो.' वह पत्र मथुरा के डाकखाने में डाल दिया और मुझे मिल भी गया। मैंने उसे लिफाफे में बन्द कर पंडितजी के पास भेज दिया । १५ दिन का अवकाश मिल गया । अन्तमें लिखा था, 'जब देश से वापिस आओं, तब आगरा हमसे मिल कर मथुरा जाना मैं देश से लौटकर जब मथुरा जाने लगा पंडितजी से आगरा में मिला । पंडितजीने भोजन करने को कहा कि भोजन कर लो, भोजन करने के बाद मथुरा चले जाना। मैंने भोजन किया । पश्चात् पंडितजी को प्रणाम कर रेल पर जाने लगा । २६२
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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