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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और पहुंले । उन्होंने विचार किया कि एक लाख में २५०००)-२५०००) ही तो प्रत्येक को मिलेगा; परन्तु क्या कोई ऐसा उपाय है कि ५००००)-५००००)मिले ! एकने कहा, "यदि वे दो मर जावें, तब अनायास मनोरथ की पूर्ति हो सकती है। इसका उपाय यह है कि बाजार से हलाहल विष लिया जावे और उसे पेड़ों में मिलाया जावे और वे पेड़े (मिठाई) उन दोनों को दिये जावें। वे तत्काल मर जावेंगे। हम-तुम आधा-आधा बांट लेंगे।" ऐसा ही किया और पेड़ा लेकर स्थान पर चलने लगे। उधर भी उन दोनोंने विचार किया कि ऐसा करोकि जिससे वे दोनों मार दिये जावे और हम दोनों आधा-आधा माल बांट लें। वे यह विचारते ही थे कि ये दोनों सामने आते हुये दिखाई दिये । इन दोनों पर उन दोनोंने बन्दूक चलाई और दोनों मृत्यु को प्राप्त हुये । पश्चात् जो मिठाई ये लाये थे उसे दोनोंने खायी । खाते ही वे दोनों भी मर गये । लोभ की ही महिमा थी जो चारों मृत्युवश हो गये । आज संसार में सर्व व्यग्र हैं. शान्ति चाहते हैं, पर शान्ति नहीं मिलती। यह सर्व लोभ की ही तो महिमा है। हमारी सन्तान दर सन्तान सुख से काल व्यतीत करे। जैसे बने तैसे धन संग्रह करोलोभ ही की तो महिमा है । जिन महानुभावोंने नाना कारागारों में रह कर अनेक कष्टों को सहन कर स्वराज्य प्राप्त किया तथा जिन के यह अभिपाय थे कि स्वराज मिलने पर हम सादगी से अपना निर्वाह करेंगे, आज उनकी वेष-भूषा को देख कर चित्त में आश्चर्य की तरंगे उठती हैं। जो है, लोभ ! तेरी महिमा अपार है। इस के जाल से बचना अल्प शक्तिवालों को अति दुर्लभ है । ऐसे २ महान् त्यागी विद्वान् जिन्होंने सादा भोजन और खादी वस्त्र का व्यवहार कर देश को सदाचार सिखाया, आज वे यदि किसी सभा में जाते हैं, तो पच्चासों पुलिसमेन उनकी रक्षा को चाहिये । जिस जनताने उनको अपना पूर्ण हितैषी रूप से देखा था, भाज वही जनता उनसे इतनी रुष्ट हो जावे-यहाँ यही निश्चय होता है कि खादीधारी वे महाशय लोम के चक्र में आ गये। यद्यपि लोभ से प्राप्त वस्तु शान्ति का कारण नहीं। आप देखते हैं कि धन के अर्जन में दुःख, रक्षण में दुःख तथा नाश होने पर भी दुःख। कोई अवस्था मुखकर नहीं। बड़े-बड़े महापुरुष इस लोभ परिग्रह की तृष्णा में इतने व्यग्र हैं कि वे आत्महित से वञ्चित रहते हैं। कहां तक लिखें ? मोक्ष का लोभ भी मोक्ष का बाधक है । (इति लोभ परिग्रह) हास्य परिग्रह हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद ये भी परिग्रह हैं। जब-हास्य कषाय का उदय होता है, तब आप फूला रहता है। अन्य को चाहे कष्ट भी हो; परन्तु आप को हास्य बिना चैन नहीं पड़ता। जैसे बावला नाना रोग से पीड़ित है, परन्तु फिर भी कोई कल्पना कर हंसने से बाज नहीं
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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