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________________ २४६ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ दर्शन और द्वारा पुरुषार्थ और प्रयत्न की ओर मानव जनता को उत्साहपूर्ण प्रेरणा मिलती है । इस विचार - क्रांति की कोटि की अन्य विचारधारा ढूंढने पर भी शायद ही मिल सकेगी । इस प्रकार महावीर - युग में प्रचलित यज्ञ-प्रणाली में हिंसा-अहिंसा की मान्यता में, वर्ण-व्यवस्था में और दार्शनिक सिद्धान्तों में आमूल-चूल परिवर्तन देखा गया । यह सब महिमा केवल ज्ञात-पुत्र, निर्गंथ, श्रमण भगवान् महावीरस्वामी की कड़क तपस्या और गंभीर दार्शनिक सिद्धान्तों की है । वेदों पर आश्रित तथाकथित वैदिक सभ्यताने मध्य युग में भी जैन-धर्म और जैनदर्शन को खत्म करने के लिये भारी प्रयत्न कियेः किन्तु वह असफल रही । इस प्रकार प्रत्येक चेतन - कणरूप आत्मा की अखंडता का, उसके विभु-स्वरूप का, उस की व्यापक शक्ति का अपने आप में परिपूर्णता का, ईश्वर से सर्वथा निरपेक्ष रहते हुए अपनी पूर्ण स्वतंत्रता का और स्वयमेव ईश्वरस्वरूप ही है-ऐसी स्व-आश्रयता का विधान करके जैन-दर्शन विश्वसाहित्य में 'आत्मवाद और ईश्वरवाद' संबंधी अपनी मौलिक विचार-धारा प्रस्तुत करता हैजो कि मानव - संस्कृति को महानता और स्वतंत्रता की ओर बढ़ाने वाली है । अतएव भारतीय राजनीति के क्षेत्र में सैकड़ों वर्षों तक विदेशी भीषण आक्रमणों, देश में आई हुई हीनतम गुलामी की आंधियों, पारस्परिक फूट की विनाशक विभीषिकाओं, समय-समय पर उत्पन्न अतिवृष्टि - अनावृष्टिजनित दुर्भिक्षों की जंजालमय बेडियों और अन्य धर्मों की असहिष्णुतामय दुर्भावनाओं के द्वारा प्रबल और प्रचंड प्रहार करने पर भी जैन दर्शन की यह मौलिक विचार-धारा ज्यों की त्यों अक्षुण्ण ही रही - इसका मूल कारण इस में निहित शुभ, प्रशस्त और हितावह मौलिक विचार क्रांति ही है । निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाय तो विदित होगा कि इसकी आत्मवाद संबंधी विचार-धारा बे जोड़ है और त्रिकाल सत्य है । स्याद्वाद अर्थात् निर्लेप दृष्टिकोण - दार्शनिक सिद्धान्तों के इतिहास में स्याद्वाद का स्थान सर्वोपरि है । स्याद्वाद का उल्लेख सापेक्षवाद, अनेकान्तवाद अथवा सप्तभंगीवाद के नाम से भी किया जाता है । विविध और परस्पर में विरोधी प्रतीत होनेवाली मान्यताओं का और विपरीत तथा विघातक विचारश्रेणियों का समन्वय करके सत्य की शोध करना, दार्शनिक संक्लेश को मिटाना और धर्मों एवं दार्शनिक सिद्धान्तों को मोतियों की माला के समान एक ही सूत्र में अनुस्यूत कर देना अर्थात् पिरो देना ही स्याद्वाद की उत्पत्ति का रहस्य है । निःसंदेह जैनधर्मने स्याद्वाद सिद्धान्त की व्यवस्थित रीति से स्थापना करके और युक्ति-संगत विवेचना करके विश्व - साहित्य में विरोध और विनाशरूप विविधता को सर्वथा मिटा देने का स्तुत्य प्रयत्न किया है।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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