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________________ संस्कृति विश्व के विचार-प्रागण में जैन तत्वज्ञान की गंभीरता। २४७ विश्व के मानव-समूहने सभी देशों में, सभी कालों में और सभी परिस्थितियों में नैतिकता तथा सुख-शांति के विकास के लिये समयानुसार आचार-शास्त्र एवं नीति-शास्त्र के जो भिन्न-भिन्न नियम और परंपराए स्थापित की हैं वे ही धर्म के रूप में विख्यात हुई और तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार उनसे मानव-समूहने विकास, सभ्यता और शांति भी प्राप्त की। किन्तु कालान्तर में वे ही परंपरायें अनुयायियों के हठाग्रह से सांप्रदायिकता के रूप में परिणित होती गई; जिससे धार्मिक-क्लेश, मतांधता, अदूरदर्शिता, हठाग्रह आदि दुर्गुण उत्पन्न होते गये और अखण्ड मानवता एक ही रूप में विकसित नहीं होकर खण्ड-खण्ड रूप में होती गई। ईसी लिये नये-नये धर्मों की, नये-नये आचार-शास्त्रों की और नये-नये नैतिक नियमों की आवश्यकता होती गई और तदनुसार इनकी उत्पत्ति भी होती गई। इस प्रकार सैंकड़ों पन्थ और मत-मतान्तर उत्पन्न हो गये और इनका परस्पर में द्वंद्व युद्ध भी होने लगा। खण्डन-मण्डन के हजारों ग्रंथ बनाये गये । सैंकड़ों बार शास्त्रार्थ हुए और मानवता धर्म के नाम पर कदाग्रह के कीचड़ में फंस कर संक्लेशमय हो गई । ऐसी गम्भीर स्थिति में कोई भी धर्म अथवा मत-मतान्तर पूर्ण सत्यरूप नहीं हो सकता है । सापेक्ष रूप से सत्यमय हो सकता है। इस सापेक्ष सत्य को प्रकट करनेवाली एक मात्र वचनप्रणाली स्याद्वाद के रूप में ही हो सकती है। अत एव स्याद्वाद सिद्धान्त दार्शनिक जगत् में और मानवता के विकास में असाधारण महत्व रखता है; और इसीका आश्रय लेकर पूर्ण सत्य प्राप्त करते हुए सभ्यता और संस्कृति का समुचित संविकास किया जा सकता है। विश्व का प्रत्येक पदार्थ अस्तिरूप अथवा सत्रूप है। जो सत्रूप होता है वह पर्यायशील होता हुआ नित्य याने अविनाशी होता है । पर्यायशीलता और नित्यता के कारण से ही हर पदार्थ अनन्त धाँवाला और अनन्त गुणोंवाला है तथा इन्हीं अनन्त धर्म-गुणों के कारण से ही एक ही समय में और एक ही साथ उन सभी धर्म-गुणों का शब्दों द्वारा कथन भी नहीं किया जा सकता है-इसी लिये स्याद्वादमय भाषा की और भी अधिक आवश्यकता प्रमाणित हो जाती है । 'स्यात् ' शब्द इसी लिये लगाया जाता है कि जिससे संपूर्ण पदार्थ उसी एक अवस्थारूप नहीं समझ लिया जाय । अन्य गुण-धर्मों का भी और अन्य अवस्थाओं का भी अस्तित्व उस पदार्थ में है-यह तात्पर्य ' स्यात् ' शब्द से जाना जाता है। ' स्यात् ' शब्द का अर्थ ' शायद है, संभवतः है, कदाचित् है-' ऐसा नहीं है; क्यों कि ये सब संशयात्मक हैं । अतएव ' स्यात् ' शब्द का अर्थ ' अमुक निश्चित् अपेक्षा से-' ऐसा संशय-रहित स्वरूपवाला है । यह ' स्यात् ' शब्द सुव्यवस्थित दृष्टिकोण को बतलानेवाला है। मतांधता के कारण से ही दार्शनिकोंने इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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