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________________ संस्कृति विश्व के विचार-प्रांगण में जैन तत्त्वज्ञान की गंभीरता । २४५ दर्शन भी कम से कहते हैं कि ' माया और प्रकृति ' द्वारा ही विश्व का संचालन हो रहा हैं। 'ब्रह्म और पुरुष' तो दर्शक मात्र हैं, निष्क्रिय जैसे हैं। अतः ईश्वरकृत सृष्टि के सिद्धान्त को निषेध करनेवाले जैन, बौद्ध, वेदान्त और सांख्य इस दृष्टि से लगभग एक ही कोटि में आते हैं । निष्कर्ष यह निकलता है कि हर आत्मा का उत्थान और पतन अपने-अपने कृत कों के अनुसार ही हुआ करता है । ईश्वरत्व जैसी शक्ति का विश्व के संचालन में न तो प्रत्यक्ष रूप से ही हस्तक्षेप है और न परोक्षरूप से ही वह ईश्वर इस विश्व का संचालन किया करता है। ईश्वरकर्तृत्व जैसी संस्कार-बद्ध जड़-मान्यता के विरोध में उपरोक्त प्रकार की सैद्धान्तिक और मौलिक दार्शनिक क्रांति भगवान् महावीरस्वामीने निडर हो कर केवल अपने आत्म-बल के आधार पर प्रस्थापित की, जो कि अजेय और सफल प्रमाणित हुई । तत्कालीन ईश्वरकर्तृत्व मान्यता के अधिनायकरूप प्रचंड और प्रबल प्रवाह के प्रतिकूल प्रभु महावीर अपने 'पुरुषार्थ द्वारा साध्य प्रभुपद' की प्रस्थापना के प्रचार-कार्य में असंदिग्ध रूप से विजयी हुए । परिणाम यह प्रसूत हुआ कि वैदिक मान्यता क्षीण होती हुई निर्बलता की ओर बढ़ती गई । तत्कालीन गण-राज्य, राजागण, जनता और मध्यमवर्ग तेजी के साथ वैदिक मान्यताओं का परित्याग करते हुए और भगवान् महावीरस्वामी के शासन-चक्र में प्रविष्ट होते हुए देखे गये। साधारणतः संपूर्ण मानवजाति हजारों ही नहीं, किन्तु लाखों वर्षों से यह मानती आई है कि ईश्वर ही इस सृष्टि का कर्ता है-प्राणियों के सुख-दुःख का वह विधाता है । वह ईश्वर ही हमें मोक्ष, स्वर्ग, नरक आदि गतियां प्रदान किया करता है । इस प्रकार मानवजाति ईश्वर पर ही एक मात्र आश्रित रही है । आत्मा की स्वतंत्र-शक्ति और इसके पुरुषार्थमय प्रयत्न पर आज दिन तक अविश्वास ही किया जाता रहा है । परन्तु धन्य है उन असाधारण तपस्वी और अतुलनीय आत्म-बलशाली प्रभु महावीरस्वामी को, जिन्होंने कि ईश्वर-कर्तृत्व-वाद के सामने विद्रोह का झंडा लहराया और ईश्वर से डरने वाली जनता के सामने अपनी आत्म-शक्ति का विश्वास कराया तथा उन्हें यह समझाया किः अप्पा कत्ता-विकत्ता य: दुहाण य सुहाण य । अप्पा कामदुहाधेणू; अप्पा मे नन्दणं वणं ।। ___ यह अपनी आत्मा ही सुखों की अथवा दुःखों की कर्ता और विकर्ता है । यह आत्मा ही कामधेनु है और नंदनवन भी यह आत्मा ही है । इस प्रकार लाखों वर्षों के जड़वद्ध विचार के प्रतिकूल नवीन विचारधारा का प्रस्तुत करना अलौकिक शक्ति का प्रदर्शन करना है। विश्व-विचार-क्षेत्रमें जैन-दर्शन की यह सर्वथा मौलिक और गंभीर भेंट है कि जिसके
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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