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________________ २४४ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और मूल-गुणों में विकृति की न्यूनाधिकता है । जिस-जिस आत्मा में जितना-जितना सात्विक गुणों का विकास है वह आत्मा उतनी ही ईश्वरत्व के पास है और जिसमें जितनी-जितनी विकृति की अधिकता है उतनी-उतनी ही वह ईश्वरत्व से दूर है । सांसारिक आत्माओं में परस्पर में पाई जानेवाली विभिन्नता का कारण सात्विक, तामसिक और राजसिक वृत्तियाँ हैं जो कि हर आत्मा के साथ कर्मरूपसे, संस्काररूपसे और वासनारूपसे संयुक्त हैं। वेदान्त-दर्शन संबंधी 'ब्रह्म और माया' का विवेचन, सांख्य-दर्शन संबंधी ' पुरुष और प्रकृति ' की व्याख्या, बौद्ध-दर्शन संबंधी ' आत्मा और वासना ' का उल्लेख तथा जैन-दर्शन संबंधी उक्त : आत्मा और कर्म ' का सिद्धान्त मूल में काफी समानता रखते हैं। शब्द-भेद, भाषा-भेद और विवेचन-प्रणालिका-भेद होने पर भी अर्थ में, मूल तात्पर्य में और मूल-दार्शनिकता में भेद प्रतीत नहीं होता है । जैसा जैन-दर्शन का कथन है उसीके अनुरूप भिन्न २ शब्दों के वेश में और भिन्न २ कथन-प्रणाली के ढाँचे में उसी एक तात्पर्य को याने ' आत्मा ही ईश्वर है ' इसी बात को उक्त सभी दर्शन कहते हैं। __उपरोक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि जैन-दर्शन की मान्यता ' वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक ' आदि वैदिक बनाम हिन्दू-धर्म के अनुसार तथा इस्लाम-क्रिश्चियन आदि मत-मतान्तरों के अनुसार केवल · ईश्वर एक ही है-' ऐसी नहीं हो कर अपने ही प्रयत्नों द्वारा विकास की सर्वोच्च और अंतिम श्रेणि प्राप्त करनेवाली, निर्मलता और ज्ञान की अण्खड तथा अक्षय धारा प्राप्त करनेवाली और इस प्रकार ईश्वरत्व प्राप्त करनेवाली अनेकानेक आत्माओं की सर्वोच्च विमलज्ञान-ज्योति के रूप में सम्मिलित होकर तदनुसार प्राप्त होनेवाले परमात्मवाद में है । इस प्रकार अनंत आत्माओंने अपना-अपना विकास करके उस सर्वोच्च पद को अक्षय काल के लिये प्राप्त किया है जिसे ' ईश्वरत्व ' कहा जाता है। परन्तु यह ध्यान में रहे कि ईश्वरत्वप्राप्त सभी आत्माओं में प्रगटित और विकसित गुणों की संख्या और स्थिति सर्वथा एक ही है। उनमें परस्पर में किसी भी प्रकार की भिन्नता अथवा विशेषता नहीं होती हैं। अतः सभी ईश्वरत्वप्राप्त आत्माओं की सादृश्यता होने से और ईश्वरत्व जैसे गुण की एकरूपता होने से यह भी कहा जा सकता है कि मूल दृष्टि से ईश्वर एक ही है। यह कथन गुणों की प्रधानता से है । आत्माओं की संख्या की दृष्टि से तो यह कहना पड़ेगा कि ईश्वर अनेक हैं; क्योंकि ईश्वरत्वप्राप्त आत्माएँ अनेक हैं। इस तरह से प्रमाणित है कि ' ईश्वर एक भी है और अनेक भी हैं। जो कि स्याद्वाद दृष्टि से निर्वाध है। अत एव इस सृष्टि का कर्ता, हर्ता, रक्षक और नियामक कोई एक ईश्वर नहीं है। परन्तु इस सृष्टि की संपूर्ण प्रक्रिया स्वाभाविक है। इसी बात को वेदान्त दर्शन और सांख्य
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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