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________________ संस्कृति विश्व के विचार-प्रांगण में जैन तत्वज्ञान की गंभीरता । २३७ चला था, वेदानुयायी तथाकथित ब्राह्मणवर्ग राजावर्ग पर अपना वर्चस्व स्थापित कर चुका था और इस प्रकार समाज में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय ही सर्वस्व थे । धर्ममार्ग ' वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ' के आधार पर कलुषित तथा उन्मार्गगामी हो चला था । ऐसी विषम और विपरीत परिस्थितियों में दीर्घ तपस्वी महावीरस्वामीने इस तपोपूत ऋषि भूमि भारत पर आज से २५४० (पच्चीस सौ चालीस ) वर्ष पूर्व जैनधर्म को मूर्त्तरूप प्रदान किया । चूं कि वर्तमान जैन तत्त्वज्ञान की धारा भगवान् महावीर के काल से ही प्रवाहित हुई है; अत एव इस निबन्ध की परिधि भी इसी काल से प्रारंभ होकर उत्तरकाल से संबंधित समझी प्राक् ऐतिहासिक काल से । जानी चाहिये, न कि महावीरस्वामीने इस सारी परिस्थिति पर गम्भीर विचार किया और उन्हें यह तथाकथित धार्मिकता विपरीत, आत्म-घातक, पाप-पंक से कलुषित और मिथ्या प्रतीत हुई । उन्होंने अपने असाधारण व्यक्तित्व के बल पर मानवजाति के आचारमार्ग में और विचारक्षेत्र में आमूल-चूल क्रांति करने के लिये अपना सारा जीवन देने का और राजकीय तथा गृहस्थसंबंधी भोगोपभोगजनित सुखों का बलिदान देने का दृढ़ निश्चय किया । इनके मार्ग में भयंकर और महती कठिनाइयाँ थीं; क्यों कि इन द्वारा प्रस्तुत की जानेवाली क्रांति का विरोध करने के लिये भारत का तत्कालीन सारा का सारा ब्राह्मणवर्ग और ब्राह्मणवर्ग का अनुयायी करोड़ों की संख्यावाला भारतीय जनता का जनमत था । राज्यसत्ता और वैदिक अंध-विश्वासों पर आश्रित, अजेय शक्तियुक्त जनमत इनके क्रान्तिमार्ग पर, पगपग पर, कांटे बिछाने के लिये याने उपसर्ग और बाधाएं उपस्थित करने के लिये तैयार खड़ा था । निर्मम और निर्दय हिंसाप्रधान यज्ञों के स्थान पर आत्मिक, मानसिक तथा शारीरिक तपप्रधान सहिष्णुता का उन्हें विधान करना था एवं मांसाहार का सर्वथा निषेध करके अहिंसा को ही मानव इतिहास में एक विशिष्ट और सर्वोपरि सिद्धान्त के रूप में प्रस्थापित करना था । ईश्वरीय विविध कल्पनाओं के स्थान पर स्वाश्रयी आत्मा की अनंत शक्तियों का दर्शन कराकर वैदिक मान्यताओं में एवं वैदिक विधि - विवानों में क्रांति लाना था। ईश्वर और आत्मासंबंधी तत्त्वज्ञानमय विचारधारों को आत्मा की ही प्राकृतिक स्वभाव-जनित अनंतता में प्रवाहित करना था । इस प्रकार असाधारण और विषमतम कठिनाइयों के बीच तप, तेज और त्याग के बल पर अपनी अनुपम कष्टसहिष्णुता के आधार पर अश्रुतपूर्व तपस्वी भगवान् महावीर - स्वामी द्वारा प्रगति दिया हुआ विचारमार्ग ही जैनदर्शन अथवा जैनधर्म कहलाया । इस प्रकार भगवान् महावीरस्वामी का महान् तपस्यापूर्ण बलिदान बतलाता है कि
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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