SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૨૮ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और उन्होंने अपनी तपोपूत निर्मल आत्मा में धर्म का मौलिक स्वरूप प्राप्त किया, जिसके बल पर उनका आध्यात्मिक कायाकल्प हो गया । ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, आत्मविश्वास और भूतदया के अमूल्य तत्त्व उनकी आत्मा में परिपूर्णता को प्राप्त हो गये। उनके महान् ज्ञानने उन्हें संपूर्ण ब्रह्माण्ड के अनादि, अनन्त और अपरिमेय एवं शाश्वत् धर्म-सिद्धान्तों के साथ संयोजित कर दिया। जहाँ संसार के अन्य अनेक महात्मा इतिहास में खड़े हैं। वहीं हम प्रातःवन्दनीय भगवान् महावीरस्वामी को अपने अलौकिक आत्मतेज से चमकते हुए असाधारण तेजस्वी के रूप में देखते हैं। सुदीर्घ तपस्या से प्रज्वलित उनका जीवन, ' सत्य और अहिंसा ' के दर्शन के लिये किया हुआ एक अत्यंत असाधारण और अनुपम शक्तिशाली सफल प्रयत्नवाला दिखलाई पड़ता है । सत्य और अहिंसा की दुरभिगम्य समस्या को उन्होंने अपने आत्म-बलिदान द्वारा सुलझाया। आज के इस वैज्ञानिकता. प्रधान विश्व में हम में से प्रत्येक को उसे अपने लिये सुलझाना है। उनका आदर्श, उनकी कष्ट-सहिष्णुता और ध्येय के प्रति उनकी अविचल दृढ़ निष्ठा हमें बल और संकेत प्रदान करती हैं, हमारे धैर्य को सहारा देती है और बतलाती है कि यही मार्ग सच्चा है । इसी मार्ग द्वारा हम अवश्य सफल हो सकते हैं। बशर्ते कि हमारे प्रयत्न भी सच्चे हों । अब हमें यह देखना है कि भगवान् महावीरस्वामीने जैनधर्म के रूप में विश्वसंस्कृति के आचारक्षेत्र तथा विचारक्षेत्र को क्या २ विशेषताएं प्रदान की हैं। अहिंसा की स्थापना। मानव-जाति का आज दिन तक जितना भी प्रामाणिक और विद्वन्मान्य इतिहास का अनुसंधानपूर्ण पता चला है, उससे यह प्रामाणिक रूप से सिद्ध होता है कि भगवान् महावीर स्वामी द्वारा प्रेरित जैनधर्म के पूर्वकाल में याने महावीरयुग के प्रारंभ होने के पूर्व-समय में इस पृथ्वी पर कई मानवजाति मांस आहर करनेवाली थीं। विविध पशुओं का मांस खाने में न तो पाप माना जाता था और न मांस-आहार के प्रति परहेज ही था एवं न घृणा ही। ऐतिहासिक उल्लेखानुसार सर्व प्रथम मानवजाति में से मांस-आहार को परित्याग कराने की परिपाटी और परंपरा प्रामाणिक रूप से तथा अविचल दृढ़ श्रद्धा के साथ जैनधर्मने ही प्रस्थापित की है। - ज्ञानबल के द्वारा और आचारवल के द्वारा मानवजाति को मांस-आहार से मोड़ने का सर्वप्रथम श्रेय जैनधर्म को ही है । इस प्रकार " विश्वधर्मो की आधारशिला एवं प्रमुखतम आचार-सिद्धान्त अहिंसा ही है तथा अहिंसा ही हो सकती है-' ऐसी महान् और अपरिवर्तनीय मान्यता मानवजाति में पैदा करनेवाला सर्वप्रथम धर्म जैनधर्म ही है। इस ऐतिहासिक
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy