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विश्व के विचार-प्रांगण में जैन तत्वज्ञान की गंभीरता
श्री रतनलाल संघवी " न्यायतीर्थ-विशारद " छोटी सादड़ी. विषय की पृष्ठ-भूमि
विशाल विश्व के विस्तृत सांस्कृतिक और साहित्यिक प्रांगण में आजदिन तक अनेक विचारधाराऐं और विविध दार्शनिक कल्पनाएं उत्पन्न होती रही हैं और पुनः कालक्रम से अनन्त के गर्भ में विलीन हो गई हैं। किन्तु कुछ ऐसी विशिष्ट, शांतिप्रद, गंभीर तथा तथ्ययुक्त विचारधाराऐं भी समय-समय पर प्रवाहित हुई हैं। जिनसे कि मानवसंस्कृति में सुखशांति, आनंद-मंगल, कल्याण और अभ्युदय का संविकास हुआ है। ... इन दार्शनिकता और तात्विकताप्रधान विचारधाराओं में जैनदर्शन तथा जैनतत्त्वज्ञान का अपना विशिष्ट और गौरवपूर्ण स्थान है। इस जैन तत्त्वज्ञान की विमलधाराने मानवसंस्कृति में और तत्त्वज्ञान की विचारणा में महान् कल्याणकारी और क्रांतियुक्त परि. वर्तन किये हैं। इससे मानव-व्यवहार और मानव-संस्कृति के विकास की प्रवाहदिशा ही मुड़ गई है । जैनतत्त्वज्ञानने मानवधर्मों के आचारक्षेत्र और विचारक्षेत्र-दोनों में ही मौलिक क्रांति की है और दोनों ही क्षेत्रों में अपनी महानता की विशिष्ट तथा स्थायी छाप छोड़ी है।
चौवीस तीर्थकरसंबंधी जैनपरंपरा के अनुसार जैनतत्त्वज्ञान की प्राचीन मीमांसा और समीक्षा नहीं करते हुए आधुनिक इतिहास और विद्वानोंद्वारा मान्य दीर्घ तपस्वी मगवान् महावीरस्वामी के युग के इतिहास पर विचारपूर्वक दृष्टिपात करें तो प्रामाणिकरूप से पता चलता है कि उस युग में भारत की संस्कृति वैदिक रीतिनीतिप्रधान थी । उत्तर भारत और दक्षिण-भारत के अधिकांश भाग में वैदिक यज्ञ-याग करना, वेद-मंत्रों का उच्चारण करके जीवित विभिन्न पशुओं को ही अग्नि में होम देना, बलिदान किये हुए पशुओं के मांस को पका कर खाना और इसी रीति से यज्ञ के मांस द्वारा पूर्वजों का तर्पण करना ही धर्म का रूप समझा जाता था। ईश्वर के अस्तित्व को एक विशिष्ट शक्ति के रूप में कल्पना करके उसे ही सारे विश्व का नियामक-का-हर्ता और स्रष्टा मानना, वर्ण-व्यवस्था का निर्माण करके शूद्रों को पशुओं से भी गया बीता समझना-इस प्रकार की धार्मिक विकृति और सांस्कृतिक विकृति महावीरयुग में हो चली थी।
समाज पर और राज्य पर ब्रामण-संस्कृति का, उपरोक्त वैदिकपद्धति का प्राधान्य हो