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________________ २३२ - स्मारक -ग्रंथ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरिदर्शन और अगर कर्मों को आत्मा का गुण माना जाय तो कर्म नाश होने पर आत्मा का नाश भी अवश्यंभावी है; क्यों कि गुण और गुणी सर्वथा भिन्न २ नहीं होते । बन्धन आत्मा की स्वतन्त्रता का अपहरण करता है; किन्तु अपना ही गुण अपनी ही स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं कर सकता । पुण्य और पाप नामक कर्मों को यदि आत्मा का गुण मान लिया जाय तो इनके कारण आत्मा पराधीन नहीं होगा । और यह तर्क एवं प्रतीति सिद्ध है कि ये दोनों आत्मा को परतंत्र बनाए रखते हैं। इस लिए ये आत्मा के गुण नहीं; किन्तु एक भिन्न द्रव्य हैं । यह भिन्न द्रव्य पुद्गल है । यह रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाला एवं जड़ है। जब रागद्वेषादिक विकृतियों के द्वारा आत्मा के ज्ञानादि गुणों को घातने का सामर्थ्य जड़ पुद्गल में उत्पन्न हो जाता है, तब यही कर्म कहलाने लगता है । यह सामर्थ्य दूर होते ही यही पुद्गल दूसरी पर्याय धारण कर लेता है । 1 कर्म आत्मा से कैसे अलग होते हैं ? आत्मा और कर्मों का संयोग संबंध है । इसे ही जैनपरिभाषा में एकक्षेत्रावगाह संबंध कहते हैं। संयोग तो अस्थायी होता है । आत्मा के साथ कर्म संयोग भी अस्थायी है । अतः उसका विघटन अवश्यंभावी है । खान से निकले हुए स्वर्णपाषाण में स्वर्ण के अतिरिक्त विजातीय वस्तु भी है । वह ही उसकी अशुद्धता का कारण है। जब तक वह अशुद्धता दूर नहीं होती, उसे सुवर्णत्व प्राप्त नहीं होता। जितने अंशों में वह विजातीय संयोग रहता है उतने अंशों में सोना अशुद्ध रहता है । यही हाल आत्मा का है । कर्मों की अशुद्धता को दूर करने के लिए आत्मा को बलवान प्रयत्न करने पड़ते हैं । इन्हीं प्रयत्नों का नाम तप है । तप का प्रारंभ भीतर से होता है । बाह्य तपों को जैनशास्त्रों में कोई महत्त्व नही दिया गया है । अभ्यन्तर तप की वृद्धि के लिए जो बाह्य तप अनिवार्य हैं वे स्वतः ही हो जाते हैं । तपों का जो अन्तिम भेद ध्यान है वही कर्मनाश का कारण है । श्रुतज्ञान की निश्चल पर्यायें ही ध्यान हैं । यह ध्यान उन्हीं को प्राप्त होता है जिन का आत्मोपयोग शुद्ध है। शुद्धोपयोग ही मुक्ति का साक्षात् कारण अथवा मुक्ति का स्वरूप है । आत्मा की पाप और पुण्यरूप प्रवृत्तिएं उसे संसार की ओर खींचती हैं। जब इन प्रवृत्तियों से वह उदासीन हो जाता है, तब नये कर्मों का आना रूक जाता है । इसे ही जैनशास्त्रों की परिभाषा में "संवर" कहा गया है । संवर हो जाने पर जो पूर्व संचित कर्म हैं वे अपना रस देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं और नये कर्म आते नहीं, तब आत्मा की मुक्ति हो जाती है। एक वार कर्मबन्धन से आत्मा अलग होकर फिर कभी कर्मों से संपृक्त नहीं होता । मुक्ति का प्रारंभ है, पर अन्त नहीं है। वह अनन्त है। मुक्ति ही आत्मा का चरम पुरुषार्थ है । इसकी प्राप्ति अभेदरत्नत्रय से होती है। 1
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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