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________________ संस्कृति जैनधर्म का कर्मवाद । २३१ तीव्रता और मन्दता के अनुसार आत्मा के साथ ठहरने की कालमर्यादा कर्मों का स्थिति - बन्ध कहलाता है । कषाय के अनुसार ही वे फल देते हैं । यही अनुभवबन्ध या अनुभागबंध कहलाता है । योग कर्मों को लाते हैं, आत्मा के साथ उनका संबंध जोड़ते हैं । कमों में नाना स्वभावों को पैदा करना भी योग का ही काम है । कर्मस्कन्धों में जो परमाणुओं की संख्या होती है, उसका कम ज्यादा होना भी योगहेतुक है। ये दोनों क्रियाएं क्रमशः प्रतिबन्ध और प्रदेशबन्ध कहलाती हैं । कर्मों के भेद और उनके कारण कर्म के मुख्य आठ भेद हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । जो कर्म ज्ञान को प्रकट न होने दे वह ज्ञानावरणीय, जो इन्द्रियों को पदार्थों से प्रभावान्वित नहीं होने दे वह दर्शनावरणीय, जो सुखदुःख का कारण उपस्थित करे अथवा जिससे सुखदुःख हो वह वेदनीय, जो आत्मरमण न होने दे वह मोहनीय, जो आत्मा को मनुष्य, तिर्थंच, देव और नारक शरीर में रोक रक्खे वह आयु, जो शरीर की नाना अवस्थाओं आदि का कारण हो वह नाम, जिससे ऊंच-नीच कहलावे वह गोत्र और जो आत्मा की शक्ति आदि के प्रकट होने में विघ्न डाले वह अन्तराय कर्म है । संसारी जीव के कौन २ से कार्य किस २ कर्म के आस्रव के कारण हैं - यह जैन शास्त्रों में विस्तार के साथ बतलाया गया है । उदाहरणार्थ::- ज्ञान के प्रकार में बाधा देना, ज्ञान के साधनों को छिन्न-भिन्न करना, प्रशस्त ज्ञान में दूषण लगाना, आवश्यक होने पर भी अपने ज्ञान को प्रकट न करना और दूसरों के ज्ञान को प्रकट न होने देना आदि अनेकों कार्य ज्ञानावरणीय कर्म के आसव के कारण हैं । इसी प्रकार अन्य कर्मों के आस्रव के कारणों को भी जानना चाहिये । जो कर्मास्रव से बचना चाहे वह उन कार्यों से विरक्त रहे जो किसी भी कर्म के आस्रव के कारण हैं । तत्त्वार्थसूत्र के छट्ठे अध्याय में आसव के कारणों का जो विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है वह हृदयंगम करने योग्य है । कर्म आत्मा के गुण नहीं हैं कुछ दार्शनिक कर्मों को आत्मा का गुण मानते हैं। पर जैन मान्यता इसे स्वीकार नहीं करती। अगर पुण्यपापरूप कर्म आत्मा के गुण हों तो वे कभी उसके बन्धन के कारण नहीं हो सकते। यदि आत्मा का गुण स्वयं ही उसे बांधने लगे तो कभी उसकी मुक्ति नहीं हो सकती । बन्धन मूल वस्तु से भिन्न होता है । बन्धन का विजातीय होना जरूरी है ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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