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संस्कृति
जैन धर्मका कर्मवाद
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जैनशास्त्रों में कर्मों के नाश होने का अर्थ है आत्मा से उनका अलग हो जाना । यह तर्कसिद्ध है कि किसी पदार्थ का कभी नाश नहीं होता । उसका केवल रूपान्तर होता है । पदार्थ पूर्व पर्याय को छोड़ कर उत्तर पर्याय ग्रहण कर लेता है । कर्मपुद्गल कर्मत्व पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय धारण कर लेते हैं । उनके विनाश का यही अर्थ है ।
99 ( आप्तपरीक्षा )
" सतो नात्यन्तसंक्षयः " नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः
" नैवासतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति " ( स्वयंभू स्तोत्र )
11 ( गीता )
आदि जैनाजैन महान् दार्शनिक सत् के विनाश का और असत् के उत्पाद का स्पष्ट विरोध करते हैं । जैसे साबुन आदि फेनिल पदार्थों से धोने पर कपड़े का मैल नष्ट हो जाता है
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अर्थात् दूर हो जाता है, वैसे ही आत्मा से कर्म दूर हो जाते हैं । यही कर्मनाश, कर्ममुक्ति अथवा कर्मभेदन का अर्थ है । जैसे आग में तपाने की विशिष्ट प्रक्रिया से सोने का विजातीय पदार्थ उससे पृथक् हो जाता है, वैसे ही तपस्या से कर्म दूर हो जाते हैं ।
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