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________________ २१६ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और . और सुनिये, समय का विभाजन करके वे इस नतीजे पर पहुंचे कि संसार में समय की अपेक्षा चार और केवल चार ही तरह की चीजें हो सकती हैं। (१) वे जो हमेशा से हैं और हमेशा तक रहेंगी। (२) वे जो हमेशा से हैं, पर हमेशा तक नहीं रहेंगी। (३) वे जो शुरू तो हुई हैं, पर हमेशा तक बनी रहेंगी। (४) वे जो शुरु होती हैं और हमेशा तक नहीं रहतीं। इन चारों के शास्त्रीय नाम हैं (१) अनादिअनन्त (२) अनादिसान्त (३) सादिअनन्त (४) सादिसान्त । अब इनके उदाहरण लीजिये । (१)जीव (२) जीव और कर्म का सम्बन्ध ( ३ ) मुक्ति (४) कर्म का परिचय । ___ जैन दर्शनकारों को यह सिद्धान्त मान्य था कि न कुछ से कुछनहीं पैदा हो सकता । जो कुछ है वह नष्ट नहीं हो सकता । इसीको यों भी कहा जा सकता है-नया पैदा नहीं होता, पुराना मिटता नहीं । आज तक के विज्ञान की कसौटी पर यह सिद्धान्त खरा समझा जाता है। किसी को इससे इन्कार नहीं । ___ बदलता रहना ही बना रहता है। वह सिद्धान्त भी आज तक सर्वमान्य है । रूस इस सिद्धान्त पर बहुत जोर देता है । इसको थोड़ा खोल कर रखना होगा। बदलते रहने के सिद्धान्त के आधार पर यह बात आसानी से कही जा सकती है कि हर चीज हर क्षण बदलती रहती है । दीपक की ज्योत तो यहाँ तक सिद्ध करती दिखाई देती है कि जो ज्योत इस क्षण है, वह दूसरे क्षण है ही नहीं। क्यों कि दूसरे क्षण की ज्योत में नया तेल जल रहा है । वह तेल नहीं जो पहिले जल रहा था। सिनेमा की फिल्मने तो इस सिद्धान्त की तस्वीर खींच कर रख दी। सिनेमा के खेल में प्रत्येक क्षण नया चित्र आता है। उससे पहिला चला जाता है। इन बदलावों के नाम शास्त्रीय रख दिये गये। वे ये हैं (१) उत्पाद (२) व्यय (३) द्रव्य । इन्हीं तीन गुण के नाम चित्रकला की बोली में हैं-ब्रह्मा, महेश, विष्णु । इन्हीं को लेकर पुराण खड़े हो गये। बस निचोड़ इतना है कि हर चीज में हर समय एक ही साथ तीनों हालतें मौजूद-कुछ बनते रहना, कुछ बिगड़ते रहना और फिर भी अटल बने रहना। उदाहरण के लिये कुम्भकार के चाक पर की मिट्टी को लीजिये । वह शुरू में मिट्टी का लौंदा है । वह ही लौंदा अपने लौंदपने को मिटाता जाता है, घड़े को पैदा करता जाता है और मिट्टीपने को अटल रखता है। ये ऐसे सत्य हैं कि स्वयंसिद्ध हैं। किसी तर्क की अपेक्षा नहीं रखते । इनसे कोई इन्कार भी कैसे कर सकता है। पर यह कहना कि किसी एक आदमीने इन सब को किसी खास समय में सोच डाला-बात इतनी बढ़ा कर कहना है कि वह सत्य की कोटी को लांघ जाती है। अनेक की, अनेक वर्ष
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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