________________
संस्कृति जैनदर्शन।
२१५ समझ सकते हैं, पर विज्ञानियों की नजर में हीरा मशीनों की धुरी की चूल बनने के योग्य है।
और आज उसका यह उपयोग हो रहा है। शीशा काटने का कलम हीरे का बना होता है। ठीक इसी तरह मन्दिरों में बंद सिद्धान्त, ग्रन्थों के सिद्धान्त जगह-जगह बिखरे हुए मिलेंगे और काम में आते हुए मिलेंगे।
एक दिन एक ग्रेजुएट साधु हम से आकर मिले। वह रूस, ब्रिटानिया और अमेरिका धूमे हुए थे। विदेशियों की बड़ी तारीफ करते हुए बोले, “ एक महान् पंडितने हमें एक अनोखा और गजब का सिद्धान्त बताया।" मैं पूछ बैठा, " वह क्या था?" बोले, "वह है यहमानना, जानना और करना। सफलता का यही निचोड़ है।" मैं उनकी बात सुन कर मुस्काया। मुस्कराहट जल्दी ही हंसी का रूप ले बैठी। वे बिगड कर बोले, "आप इसे छोटी बात समझते हैं! ऐसे सिद्धान्त बड़ी मेहनत और अनुभव से हाथ आते हैं।" मैं बोला, " मैं इस लिये नहीं हंसा कि आपने कोई मामूली बात कही, मैं तो यों हंसा कि मैं अब तक इसे मामूली बात समझता रहा । बारह बरस की उमर से मेरे मां बाप मुझे यह ही रटाते रहे। यह हिन्दुस्तान का बहुत पुराना सिद्धान्त है । यह कह कर मैंने उनको सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्रवाला सूत्र पढ़ कर सुना दिया । वे उसे सुन कर पहिले तो खिलखिला कर हँसे और फिर सौम्य चहरा बना कर बोले, " फिर भारत इतने दिन गुलाम क्यों रहा !" बात आई-गई हो गई।
दर्शनसूत्र ताले में बन्द करके रक्खे नहीं जा सकते । ये तो एक बार किसी के मुंह से निकले कि सारी दुनियां में फैले । इन में यह सिफत है कि ये दुनियां के हर हिस्से में फल-फूल सकते हैं और वट वृक्ष की तरह बहुत बड़े हिस्से पर छा सकते हैं।
जैन दर्शनकार नाम से पुकारे जानेवाले रिषियोंने अपने समय में यह कोशिश की कि वे दर्शन विषय पर इतना लिख जाय कि कुछ लिखने को न रह जाय ।
अब सुनिये उन्होंने क्या किया। उन्होंने सारे अक्षर लिये और हिसाब लगा कर यह देखा कि इन अक्षरों से कितने शब्द बन सकते हैं तो उन्होंने उतने ही शब्द तैयार कर लिये । जब उन्हें यह मालूम हो गया तो उसी हिसाब से ग्रन्थ रच डाले। ये ग्रन्थ मिलते नहीं हैं यह दूसरी बात है; पर उनके लिखे जाने का हाल जरूर मिलता है। इतना होने पर भी यह बात उनकी नजर से रह गई कि नई-नई ध्वनियां भी बन सकती हैं, उनके लिये नये अक्षर भी गढ़े जा सकते हैं। हूस्व और दीर्घ स्वर के बीच में एक से ज्यादा और भी आवाजें हो सकती हैं। फिर भी जो कुछ उन्होंने किया वह इतने मार्के का जरूर है कि आज के विद्वानों को मी उनके प्रथलों की कहानी सुन कर दांतों तले अंगुली दाबनी पड़ती है।