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________________ संस्कृति जैनदर्शन । २१७ की, अनेक तरह की कोशिशों का ही फल है कि मानव-समाज इस सचाई तक पहुंचा। हर एक चीज अनेक गुणवाली है। इस पर एक पहलू से ही विचार नहीं किया जा सकता। अनेक पहलुओं से ही विचार करना होगा। यह एक नया सिद्धान्त है जो जैन दर्शनकारों को मान्य है । इसीका नाम है ' अनेकान्त '। इस सिद्धान्त के समझ लेने से वाद-विवाद का महल इस तरह ढह जाता है, जिस तरह बाल के टीले पर खड़ा मकान । इस सिद्धान्त का नाम झगड़ा-फैसल-सिद्धान्त भी रक्खा जा सकता है। यह दूसरी बात है कि लोगोंने इसको ताऊ-झगडू बना रक्खा है। इसीसे मिलता, जुलता जैनदर्शनकारों का 'नयवाद' भी है, जिसका नाम है 'स्याद्वाद' जो सप्तभती नय के नाम से मशहूर है । संस्कृत के स्यात् शब्द का अर्थ होता है, शायद । इसी शायद को लेकर, 'है और नहीं' के मेलसे सात रूप बना लिये गये हैं । इसका निचोड़ इतना ही है कि प्रत्येक वस्तु का स्वरूप ठीक नहीं कहा जा सकता-अवक्तव्य है । और हकिकत है ही ऐसी । हर क्षण बदलती दुनियां को ठीक रूप में पकड़ना मुश्किल ही नहीं, असम्भव है । सप्तभङ्गी नय पर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ लिख दिया गया है । __जैन दर्शनकार को यह बात स्वीकार नहीं कि किसी एक ईश्वरने इस जगत को बनाया है। इस सीधी-साधी बात की अस्वीकृति सिर ओढ़ कर जैनदर्शनकारने एक आफत सिर पर लेली। ____ मकान गिराना आसान है; पर अपनी मरजी के माफिक दूसरा मकान खड़ा करना काम है, और मुश्किल काम है। ईश्वर का खण्डन कोई भी कर सकता है। पर ईश्वर के विना जग की रचना की योजना तो हर कोई तैयार नहीं कर सकता । ईश्वर का खण्डन जैनों के मैदान में आने से पहिले हो चुका था और जगत् की छोटी-मोटी योजना भी तैयार हो चुकी थी; पर वह इतनी विस्तृत नहीं थी कि आपकी और मेरी समझ में आ जाय । इसलिये वह फैल न पाई । जैनदर्शनकारोंने खूब ही ईश्वर का मण्डन किया और दुगुने जोरसे उसका खण्डन किया और चौगुना जोर लगाकर नई योजना खड़ी कर दी और ईश्वर के बिना दुनियां को बनाकर दिखा दिया और दुनियां में निर्बन्धशाही भी नहीं होने दी। राजा नहीं और अराजकता भी नहीं-यह चमत्कार नहीं तो और क्या है ! राजकारी क्षेत्र में जो लोकशाही है, धार्मिक क्षेत्र में वह ही लोकशाही पैदा कर दी। कर्मसिद्धान्त तैयार करके ईश्वर की जरूरत का अन्त कर दिया। ईश्वर जब था, था तो वह तब भी आदमी से गद्दी पाया हुआ राजा ! पर जैनदर्शनकारोंने तो एक ईश्वर की जगह अनेक ईश्वर खड़े कर दिये हैं । रूसियों की तरह प्रेसिडेन्ट की जगह प्रीसिडियम बना दिया। यानि प्रमुख की जगह
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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