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________________ २०४ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और चाहिए। इस प्रकार व्यवहारनय के एक भेदरूप से प्रथम आरे में अज्ञानवाद का उत्थान है। इस अज्ञानवाद का यह भी अर्थ है कि पृथ्वी आदि सभी वस्तुएं अज्ञानप्रतिबद्ध हैं। जो अज्ञान विरोधी ज्ञान है वह भी अवबोधरूप होने से संशयादि के समान ही है अर्थात् उसका भी अज्ञान से वैशिष्ट्य सिद्ध नहीं है । इस मत के पुरस्कर्ता के वचन को उद्धृत किया गया है कि " को घेतद वेद ! किंवा एतेन ज्ञातेन !" यह वचन प्रसिद्ध नासदीय सूक्त के आधार पर है । जिस में कहा गया है" को अद्धा वेद क इह प्रवोचन् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः ।........यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥ ६-७ ॥" टीकाकार सिंहगणिने इसी मत के समर्थन में वाक्यपदीय की कारिका उद्धृत की है जिस के अनुसार भर्तृहरि का कहना है कि अनुमान से किसी भी वस्तु का अंतिम निर्णय हो नहीं सकता है । जैनग्रन्थों में दर्शनों को अज्ञानवाद, क्रियावाद, अक्रियावाद और विनयवादों में जो विभक्त किया गया है उसमें से यह प्रथम वाद है यह टीकाकारने स्पष्ट किया है । तथा आगम के कौन से वाक्य से यह मत संबद्ध है यह दिखाने के लिए आचार्य मल्लवादीने प्रमाणरूप से भगवती का निम्न वाक्य उद्धृत किया है" आता भंते णाणे अण्णाणे' गोतमा; णाणे नियमा आता, आता पुण सिया णाणे, सिया अण्णाणे " भगवती १२. ३. ४६७ ॥ इस नय का तात्पर्य यह है कि जब वस्तुतत्त्व पुरुष के द्वारा जाना ही नहीं जा सकता, तब अपौरुषेय शास्त्र का आश्रय तत्वज्ञान के लिए नहीं किन्तु क्रिया के लिए करना चाहिए । इस प्रकार इस अज्ञानवाद को वैदिक कर्मकाण्डी मीमांसक मत के रूप में फलित किया गया है । मीमांसक सर्वशास्त्र का या वेद का तात्पर्य क्रियोपदेश में मानता है। सारांश यह है कि शास्त्र का प्रयोजन यह बताने का है कि यदि आप की कामना अमुक अर्थ प्राप्त करने की है तो उसका साधन अमुक क्रिया है । अतएव शास्त्र क्रिया का उपदेश करता है । जिस के अनुष्ठान से आप की फलेच्छा पूर्ण हो सकती है । यह मीमांसक मत विधिवाद के नाम से प्रसिद्ध भी है अतएव आचार्यने द्रव्यार्थिक नय के एक भेद व्यवहार नय के उपभेदरूप से विधिभंगरूप प्रथम अर में मीमांसक के इस मत को स्थान दिया है । इस अरमें विज्ञानवाद-अनुमान का नैरर्थक्य आदि कई प्रारंभिक विषयों की भी चर्चा की गई है, किन्तु उन सबके विषय में ब्योरेवार लिखने का यह स्थान नहीं है । (२) द्वितीय अरके उत्थान में मीमांसक के उक्त विधिवाद या अपौरुषेय शास्त्रद्वारा क्रियोपदेश के समर्थन में अज्ञानवाद का जो आश्रय लिया गया है उसमें त्रुटि यह दिखाई गई १ . यत्नेनानुमितोऽप्यर्थ कुशलैरनुमातृभिः । अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते ॥' -वाक्यपदीय १. ३४.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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