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संस्कृति
आचार्य महंवादी का नयचक्र ।
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मार्ग है। मार्ग के तीन भेद करने का कारण यह है कि प्रथम के चार विधिभंग हैं । द्वितीय Pages उभयभंग है और तृतीय चतुष्क नियमभंग है । ये तीनों मार्ग क्रमशः नित्य, नित्यानित्य और अनित्य की स्थापना करते हैं ।' नेमि को लोहवेष्टन से मंडित करने पर वह और भी मजबूत बनती है अत एव चक्र को वेष्टित करनेवाले लोहपट्ट के स्थान में सिंहगणिविरचित नयचक्रवालवृत्ति है । इस प्रकार नयचक्र अपने यथार्थ रूप में चक्र है ।
नयों के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो भेद प्राचीनकाल से प्रसिद्ध हैं । नैगमादि सात नयों का समावेश भी उन्हीं दो नयों में होता है । मल्लवादीने द्वादशारनयचक्र की रचना की तो उन बारह नयों का संबंध उक्त दो नयों के साथ बतलाना आवश्यक था । अत एव आचार्यने स्पष्ट कर दिया है कि विधि आदि प्रथम के छः नय द्रव्यार्थिक नय के अन्तर्गत हैं और शेष छ: पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत हैं । आचार्यने प्रसिद्ध नैगमादि सात नयों के साथ भी इन बारह नयों का संबंध बतलाया है । तदनुसार विधि आदि का समन्वय इस प्रकार है । १ व्यवहार नय, २-४ संग्रह नय, ५ - ६ नैगम नय, ७ ऋजुसूत्र नयं, ८-९ शब्दनय, १० समभिरूढ, ११-१२ एवंभूत नय ।
नयचक्र की रचना का सामान्य परिचय कर लेने के बाद अब यह देखें कि उसमें नयों - दर्शनों का किस क्रम से उत्थान और निरास हैं ।
ये
( १ ) सर्व प्रथम द्रव्यार्थिक के मेदरूप व्यवहार नय के आश्रय से अज्ञानंवाद का उत्थान है । इस नय का मन्तव्य है कि लोकव्यवहार को प्रमाण मान कर अपना व्यवहार चलाना चाहिए । इसमें शास्त्र का कुछ काम नहीं। शास्त्रों के झगड़े में पड़ने से तो किसी बात का निर्णय हो नहीं सकता है । और तो और शास्त्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण का भी निर्दोष लक्षण नहीं कर सके । वसुबन्धु के प्रत्यक्ष लक्षण में दिङ्नागने दोष दिखाया है और स्वयं दिनाग का प्रत्यक्ष लक्षण भी अनेक दोषों से दूषित है । यही हाल सांख्यों के वार्षगण्यकृत प्रत्यक्ष लक्षण का और वैशेषिकों के प्रत्यक्ष का है। प्रमाण के आधार पर ये दार्शनिक वस्तु कोएकान्त सामान्य विशेष और उभयरूप मानते हैं, किन्तु उनकी मान्यता में विरोध है । सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद का भी ये दार्शनिक समर्थन करते हैं किन्तु ये वाद भी ठीक नहीं । कारण होने पर भी कार्य होता ही है यह भी नियम नहीं । शब्दों के अर्थ जो व्यवहार में प्रचलित हों उन्हें मान कर व्यवहार चलाना चाहिए। किसी शास्त्र के अर्थ का निर्णय हो नहीं सकता है । अत एव व्यवहार नय का निर्णय है यथार्थरूप में कभी जाना नहीं जा सकता है-अत एव उसे जानने का प्रयत्न भी नहीं करना
आधार पर शब्दों के कि वस्तुस्वरूप उसके
(१) श्री आत्मानंद प्रकाश ४५. ७. पृ० १२३. । ( २ ) ४५. ७. पृ० १२३ । ( ३ ) ४५. ७. पृ० १२४ ।