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________________ २०२ श्रीमद् विजयराजेन्दसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और ११ नियमोभयम् ( नियमस्य विधिनियमौ )। १२ नियमनियमः ( नियमस्य नियमः )। चक्र के आरे एक तुम्ब या नाभि में संलग्न होते हैं उसी प्रकार ये सभी नय स्याद्वाद या अनेकान्तरूप तुम्ब या नाभि में संलग्न हैं। यदि ये आरे तुम्ब में प्रतिष्ठित न हों तो विखर जायेंगे उसी प्रकार ये सभी नय यदि स्याद्वाद में स्थान नहीं पाते तो उनकी प्रतिष्ठा नहीं होती । अर्थात् अभिप्रायभेदों को, नयमेदों को या दर्शनभेदों को मिलानेवाला स्याद्वादतुम्ब नयचक्र में महत्त्व का स्थान पाता है । दो आरों के बीच चक्र में अन्तर होता है। उसके स्थान में आचार्य मल्लवादीने पूर्व नय का खण्डन भाग रखा है। अर्थात् जब तक पूर्व नय में कुछ दोष न हो तब तक उत्तर नय का उत्थान ही नहीं हो सकता है । पूर्व नय के दोषों का दिग्दर्शन कराना यह दो नयरूप आरों के बीच का अन्तर है । जिस प्रकार अन्तर के बाद ही नया आरा आता है उसी प्रकार पूर्व नय के दोषदर्शन के बाद ही नया नय अपना मत स्थापित करता है। दूसरा नय प्रथम नय का निरास करेगा और अपनी स्थापना करेगा, तीसरा दूसरे का निरास और अपनी स्थापना करेगा। इस प्रकार क्रमशः होते होते ग्यारवें नय का निरास कर के अपनी स्थापना बारहवां नय करता है । यह निरास और स्थापना यहीं समाप्त नहीं होती । क्यों कि नयों के चक्र की रचना आचार्यने की है अत एव बारहवें नय के बाद प्रथम नय का स्थान आता है, अतएव वह भी बारहवें नय की स्थापना को खण्डित करके अपनी स्थापना करता है । इस प्रकार ये बारहों नय पूर्व पूर्व की अपेक्षा प्रबल और उत्तर उत्तर की अपेक्षा निर्बल हैं । कोई भी ऐसा नहीं जिसके पूर्व में कोई न हो और उत्तर में भी कोई न हो । अतएव नयों के द्वारा संपूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं होता इस तथ्य को. नयचक्र की रचना करके आ० मल्लवादीने मार्मिक ढंग से प्रस्थापित किया है। और इस प्रकार यह स्पष्ट कर दिया है कि स्याद्वाद ही अखंड सत्य के साक्षात्कार में समर्थ है, विभिन्न मतवाद या नय नहीं। तुम्ब हो, आरे हों किन्तु नेमि न हो तो वह चक्र गतिशील नहीं बन सकता और न चक्र ही कहला सकता है अत एव नेमि भी आवश्यक है । इस दृष्टि से नयचक्र के पूर्ण होने में भी नेमि आवश्यक है । प्रस्तुत नयचक्र में तीन अंश में विभक्त नेमि की कल्पना की गई है । प्रत्येक अंश को मार्ग कहा गया है । प्रथम चार आरे को जोड़नेवाला प्रथम मार्ग, आरे के द्वितीय चतुष्क को जोड़नेवाला द्वितीय मार्ग और आरों के तृतीय चतुष्क को जोड़नेवाला तृतीय १ नयचक्र पृ. १० । २ आत्मानंद प्रकाश ४५. ७. पृ. १२१ । ३ श्री आत्मानंद प्रकाश ४५. ७. पृ. १२२ ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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