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संस्कृति आचार्य मालवादी का नयचक ।
२०१ यह नया मार्ग अपनाया तव प्राचीन पद्धति से लिखे गए प्रकरणग्रन्थ गौण हो जाय यह स्वाभाविक है। यही कारण है कि नयचक्र पठन-पाठन से वंचित हो कर क्रमशः काल. कवलित हो गया-यह कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा। नयचक्र के पठन-पाठन में से लुप्त होने का एक दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि नय चक्र की युक्तिओं का उपयोग करके अन्य सारात्मक सरल ग्रन्थ बन गए, तब भाव और भाषा की दृष्टि से क्लिष्ट और विस्तृत नयचक्र की उपेक्षा होना स्वाभाविक है । नयचक्र की उपेक्षा का यह भी कारण हो सकता है कि नयचक्रोत्तरकालीन कुमारिल और धर्मकीर्ति जैसे प्रचण्ड दार्शनिकों के कारण भारतीय दर्शनों का जो विकास हुआ उससे नयचक्र वंचित था । नयचक्र की इन दार्शनिकों के बाद कोई टीका भी नहीं लिखी गई जिससे वह नये विकास को आत्मसात् कर लेता। नयचक्र का परिचय
नयचक्रोत्तरकालीन ग्रन्थोंने नयचक्र की परिभाषाओं को भी छोड़ दिया हैं । सिद्धसेन दिवाकरने प्रसिद्ध सात नय को ही दो मूल नय में समाविष्ट किया हैं। किन्तु मल्लवादीने, क्यों कि नयविचार को एक चक्र का रूप दिया, अत एव चक्र की कल्पना के अनुकूल नयों का वर्गीकरण किया है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। आचार्य मल्लवादी की प्रतिभा की प्रतीति भी इसी चक्ररचना से ही विद्वानों को हो जाती है ।
चक्र के बारह आरे होते हैं। मल्लवादीने सात नय के स्थान में बारह नयों की कल्पना की है, अत एव नयचक्र का दूसरा नाम द्वादशारनयचक भी है । वे ये हैं
१ विधिः। २ विधि-विधिः ( विधेर्विधिः)। ३ विध्युभयम् ( विधेर्विधिश्च नियमश्च )। ४ विधिनियमः ( विधेनियमः)। ५ विधिनियमौ ( विधिश्च नियमश्च )। ६ विधिनियमविधिः ( विधिनियमयोविधिः )। ७ उभयोभयम् ( विधिनियमयोविधिनियमौ )। ८ उभयनियमः ( विधिनियमयोनियमः )। ९ नियमः। १० नियमविधिः (नियमस्य विधिः )।