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________________ संस्कृति आचार्य मल्लवादी का नयचक्र । २०५ है कि यदि लोकतत्त्व पुरुषों के द्वारा अज्ञेय ही है तो अज्ञानवाद के द्वारा सामान्य-विशेषादि एकान्तवादों का जो खण्डन किया गया वह उन तत्त्वों को जानकर या बिना जाने ! जान कर कहने पर स्ववचन विरोध है और बिना जाने तो खण्डन हो कैसे सकता है ! तत्त्व को जानना यह यदि निष्फल हो तो शास्त्रों में प्रतिपादित वस्तुतत्त्व का प्रतिषेध अज्ञानवादीने जो किया वह भी क्यों ! शास्त्र क्रिया का उपदेश करता है यह मान लिया जाय तब भी जो संसेव्य विषय है उसके स्वरूप का ज्ञान तो आवश्यक ही है; अन्यथा इष्टार्थ में प्रवृत्ति ही कैसे होगी ! जिस प्रकार यदि वैद्य को औषधि के रस-वीर्य-विपाकादि का ज्ञान न हो तो वह अमुक रोग में अमुक औषधि कार्यकर होगी यह नहीं कह सकता वैसे ही अमुक याग करने से स्वर्ग मिलेगा यह भी बिना जाने कैसे कहा जा सकता है ! अत एव कार्यकारण के अभीन्द्रीय सम्बन्ध को कोई जानने वाला हो तब ही वह स्वर्गादि के साधनों का उपदेश कर सकता है, अन्यथा नहीं । इस दृष्टि से देखा जाय तो सांख्यादि शास्त्र या मीमांसक शास्त्र में कोई भेद नहीं किया जा सकता । लोकतत्त्व का अन्वेषण करने पर ही सांख्य या मीमांसक शास्त्र की प्रवृत्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं । सांख्य शास्त्र की प्रवृत्ति के लिए जिस प्रकार लोकतत्त्व का अन्वेषण आवश्यक है उसी प्रकार क्रिया का उपदेश देने के लिए भी लोकतत्त्व का अन्वेषण आवश्यक है । अत एव मीमांसक के द्वारा अज्ञानवाद का आश्रय ले कर क्रिया का उपदेश करना अनुचित है । 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इस वैदिक विधिवाक्य को क्रियोपदेशकरूप से मीमांसकों के द्वारा माना जाता है । किन्तु अज्ञानवाद के आश्रय करने पर किसी भी प्रकार से यह वाक्य विधिवाक्य रूप से सिद्ध नहीं हो सकता इसकी विस्तृत चर्चा की गई है। और उस प्रसंग में सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद के एकान्त में भी दोष दिये गये हैं। इस प्रकार पूर्व अरमें प्रतिपादित अज्ञानवाद और क्रियोपदेश का निराकरण करके पुरुषाद्वैत की वस्तुतत्त्वरूप से और सब कार्यों के कारणरूप से स्थापना द्वितीय अरमें की गई है। इस पुरुष को ही आत्मा, कारण, कार्य और सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है । सांख्यों के द्वारा प्रवृत्ति को जो सर्वात्मक कहा गया था उसके स्थान में पुरुष को ही सर्वात्मक सिद्ध किया गया है । - इस प्रकार एकान्त पुरुषकारणवाद की जो स्थापना की गई है उसका आधार 'पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यं ' इत्यादि शुक्ल यजुर्वेद के मन्त्र (३१.२) को बताया गया है। और अन्त में कह दिया गया है कि वह पुरुष ही तत्त्व है, काल है, प्रवृत्ति है, स्वभाव है, नियति है। इतना ही नहीं किन्तु देवता और अर्हन भी वही है। आचार्य का अज्ञानवाद के बाद पुरुषवाद रखने का तात्पर्य यह जान पडता है कि अज्ञानविरोधी ज्ञान है और ज्ञान ही चेतन आत्मा है, अतएव वही पुरुष है। अतएव यहाँ अज्ञानवाद के बाद पुरुषवाद रखा गया है-ऐसी संभावना की जा सकती है।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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