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________________ १२ श्री राजेन्द्रसूरि-वचनामृत । ३९ जिस धर्म या समाज का साहित्य अत्युज्वल और सत्य वस्तुस्थिति का बोधक है संसार में वह धर्म या समाज सदा जीवित रहता है, उसका नाश कभी नहीं होता। आज भारत में जैनधर्म विद्यमान है इसका मूल कारण उसका उज्ज्वल साहित्य ही है। जैन-साहित्य अहिंसादि और सत्य वस्तुस्थिति का बोधक है । इसी कारण से आज भारतीय एवं भारतेतरदेशीय बड़े-बड़े विद्वान् इसकी मुक्तकंठ से सराहना कर रहे हैं । अतः जैन साहित्य का मुख उज्वल और समादरणीय बन रहा है। सर्वादरणीय और सत्य साहित्य में संदिग्ध रहना अपनी संस्कृति का घात करने के बराबर है । ४० जिस देव में भय, मात्सर्य, मारणबुद्धि, कषाय और विषयवासना के चिह्न विद्यमान हैं, उसकी उपासना से उसके उपासक में वैसी बुद्धि उत्पन्न होना स्वभाविक है । जैनधर्म में सर्व दोषों से रहित, विषयवासना से विमुक्त और भवम्रमण के हेतुभूत कमों से रहित एक वीतराग देव ही उपास्य देव माना गया है। जिस की उपासना से मानव ऐसा स्थान प्राप्त कर सकता है जहाँ भवभ्रमणरूप जन्म-मरण का दुःख नहीं होता । इस प्रकार के वीतराग देव की आराधना जब तक आत्मविश्वास से न की जाय, तब तक न भवभ्रमण का दुःख मिटता है और न जन्म-मरण का दुःख । ४१ संसार में यदि सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने की जिज्ञासा हो तो सब के साथ नदी-नौका के समान हिल-मिल कर चलना सीखो । किसी के साथ विद्रोह या विरोध न करो । फिर भी धनवान् १, बलवान् २, ज्ञानवान् ३, तपस्वी ४, शीलवान् ५, अधिक परिवारी ६, शिक्षादाता गुरु ७, भूपति ८, क्रोध चंडाल ९, जुआरी १०,चुगलखोर ११, दुष्टात्मा १२, रोगग्रस्त १३, अभिमानी १४, असत्यवादी १५, स्वार्थी १६, बालक १७, अतिवृद्ध १८, दानवीर १९ और पूज्य पुरुष २०, इन वीश जनों के साथ भूल कर के भी कभी विरोध नहीं करना चाहिये; नहीं तो ये विपत्ति में उतारे बिना कभी नहीं रहेंगे। ४२ विद्या धन उद्यम विना, पावे ज कहो कौन ?' विद्या और धन ये दोनों सतत परिश्रम के ही फल हैं। मंत्रजाप, देवाराधना और ढोंगी पाखंडियों के गले पड़ने से विद्या और धन कभी नहीं मिल सकते । विद्या चाहते हो तो सुगुरुओं की सेवापूर्वक संगति करो, पुस्तक या शास्त्र पाठों का मनन करने में सतत प्रयत्नशील रहो । धन चाहते हो तो धर्म और नीति का यथावत् परिपालन करते हुए व्यापार-धंधा में सदा संलग्न रहो। यही विद्या या धनप्राप्ति का सरल उपाय समझना चाहिये। ४३ राज्य, गुरुदेव, शास्त्रनियम, ज्येष्ठवर्ग, सन्मित्र, जातिपंच और लोकापवाद
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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