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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि- स्मारक -ग्रंथ I ३५ उन्नति पथ पर चढ़ने की आशा अमीर और गरीब सब को रहती है। जो व्यक्ति सशक्त हो देवांशी गुणों को अपने हृदय में धारण करके शनैः शनैः चढ़ने के लिये कटिबद्ध रहता है वह उस ध्येय पर जा बैठता है और जो खाली विचारग्रस्त रहता है वह पीछे ही रह जाता है । आगे बढ़ना यह पुरुषार्थ पर निर्भर है । पुरुषार्थ वही व्यक्ति कर सकता है जो आत्मबल पर खड़ा रहना जानता है । दूसरों के भरोसे कार्य करनेवाला पुरुष उन्नति पथ पर चढ़ने का अधिकारी नहीं है । उसे तो अंत में गिरना ही पड़ता ३६ दुनियां में निशिपलायन करके भी कुछ साधु आगमप्रज्ञ कहा कर अपनी प्रतिष्ठा को जमाये रखने के लिये अपनी कलित कलम के द्वारा पुस्तक, पैम्पलेट या लेखों में मीयांमि बनने की बहादुरी दिखाया करते हैं, पर दुनियां के लोगों से जो बात जगजाहिर होती है वह कभी छिपी नहीं रह सकती । अफसोस है कि इस प्रकार करने से क्या द्वितीय महाव्रत का भंग नहीं होता ? होता ही हैं । फिर भी वे लोग आगम- प्रज्ञता का शींग लगाना ही पसंद करते हैं। वस्तुत इसी का नाम अवशस्तता है । जन-मन-रंजनकारी प्रज्ञा को आत्मप्रगतिरोधक ही समझना चाहिये। जिस प्रज्ञा में उत्सूत्र, मायाचारी, असत्य भाषण भरा रहता है वह दुर्गति प्रदायक है । अत: मियांमिट्ठू बनने का प्रयत्न असलियत का प्रबोधक नहीं, किन्तु अधमता का द्योतक है । १० ३७ मानव की मानवता का प्रकाश सत्य, शौर्य, उदारता, से ही होता है । जिस में गुण नहीं, उसमें मानवता नहीं, मानवता का संहारक है और प्राणीमात्र को यही को दुर्भावनारूप अंधकार को अपने हृदय से करना चाहिये । यही प्रकाश उच्चस्तर पर ले शिवधाम में पहुंचाता है । है 1 संयमितता आदि सद्गुर्गो अन्धकार है । अंधकार ही संसार में ढकेलता है । अतएव प्राणीमात्र निकाल कर सद्भावनामय प्रकाश प्रगट जाकर मानवजीवन को सफल बना कर ३८ जिनेश्वर वाणी अनेकान्त है । वह संयममार्ग की समर्थक है । वह सर्व प्रकारेण तीनों काल में सत्य है और अज्ञानतिमिर की नाशक है। इस में एकान्त दुराग्रह और असत् तर्कवितों को किंचिन्मात्र भी स्थान नहीं है। जो लोग इस में विपरीत श्रद्धा रखते और संदिग्ध रहते हैं, वे मतिनंद और मिथ्यावासना से ग्रसित हैं । जिस प्रकार सघन मेघघटाओं से सूर्यतेज दब नहीं सकता, उसी प्रकार मिथ्याप्रलापों से सत्य आच्छादित नहीं हो सकता । अतः किसी प्रकार का सन्देह न रख कर जिनेश्वर वाणी का आराधन करो, जिस से भवभ्रमण का रोग सर्वथा नष्ट हो जाय ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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