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________________ श्री राजेन्द्रसूरि-वचनामृत । मत करो । समभाव में निमग्न रद्द कर निज आत्मिक गुणों में लीन रहो, यही मार्ग तुम को मोक्षाधिकारी बनावेगा । ३१ पुत्र और पाप ये दोनों सोने और लोहे की बेड़ी के समान हैं और मोक्षार्थियों के लिये ये दोनों बाधक है। ज्ञानी पुरुष अपने अनुभव के द्वारा पुण्य और पाप को निःशेष करने को यथाशक्य प्रयत्नशील रहते हैं। साथ ही इन्द्रियजन्य भोग-विलासों को सद्गुणी घातक समझ कर छोड़ देते हैं । इस प्रकार प्रयत्नशील रहने से सुख-दुःख का ताता समूल नष्ट होकर निःसंदेह मोक्षप्राप्ति होती है । ३२ कल्याणकारी वचन बोलना, चंचल इन्द्रियों का दमन करना, संयमभाव में लीन रहना, आपत्ति आ पड़ने पर भी व्याकुल नहीं होना, अपने कर्त्तव्य का पालन करना और सर्वत्र समभाव में वरतना । इसी प्रकार लोगों को सत्य वचन बोलने, सच्चा उपालम्भ और सच्चा उपदेश देने के स्थान में भी भयभीत नहीं होना । इन गुणों को धारण करनेवाले साधु, श्रमण या मुनि कहलाते हैं और इन्हीं के द्वारा लोगों का उद्धार होता है । 1 ३३ पुरुष एक स्त्री का और बो एक पुरुष की हो कर रहे । पुरुष और पशु में सब से बड़ा भेद यही है कि पुरुष अपनी खो के अतिरिक्त दूसरी खियों को माता, बहिन के समान समझता है; लेकिन पशु में यह विचार नहीं पाया जाता। मनुष्य होते हुए भी अपने आचरण पशु के समान करने लग जाय तो वह मनुष्य नहीं पशु ही है । सिर्फ अंतर शींग-पूंछ न होना ही है । धन चला जाय तो कुछ नहीं जाता, स्वास्थ्य नष्ट हो जाय तो कुछ नहीं चला गया समझो, लेकिन जिस की इज्जत - आवरू चलो जाय, चरित्र नष्ट हो जाय तो सब कुछ नष्ट हो गया यही समझना चाहिये । अतः पुरुष और स्त्रो को सच्चरित्र होना बहुत आवश्यक है 1 ३४ जो व्यक्ति व्याख्यान देने में दक्ष हो, प्रतिभासंपन्न हो, कुशाग्र बुद्धिशाली हो और प्रौढ वक्ता हो; परन्तु जब तक वह मान-प्रतिष्ठा का लोलुती होता है और दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयत्न करता रहता है, तब तक वह न वक्तृत्वकलाशील है और न प्रतिभा संपन्न या विद्वान् है । ऐसा व्यक्ति सदा लोगों में तिरस्करणीय, मान-प्रतिष्ठा से हीन और अपनी बुद्धि का शत्रु बना रहता है । अतः दूसरों को अपनी विद्वत्ता बतलाने की अपेक्षा निज आत्मा को समझाना श्रेष्ठतम है । इसीसे कुशाग्र बुद्धि का, विद्वता एवं प्रतिष्ठा का मान बढ़ेगा और आत्मा का आशातीत उत्थान हो सकेगा । सफलता प्राप्त करने का यही एक सरल उपाय है । १
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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