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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रेथ प्रेम से सदा वंचित रहता है। अमानुपी दुर्गुणों के कारण वह बिना स्वामी के पशु के समान इधर-उधर ठोकरें खाता है और अनेक विताओं में रात-दिन रहता है। इसलिये अपनी खराब आदतों को सुधारे विना मनुष्य को कहीं पर न आदर मिलता है जौर न अच्छा गुण । जो लोग आदत को सुधार कर अच्छे बन जाते हैं वे सब लोगों के प्रिय बन जाते हैं और अच्छे गुण संपादन कर लेते हैं। २८ तीन वणिक पूंजी लेकर कमाने के लिये परदेश गये। उनमें एकने पूंजी से लाभ प्राप्त किया, दूसरेने पूंजी को संभाल कर रक्खी और तीसरेने मारी पूंजी को बेपरवाही से खो दी । यह है कि पूंजी के समान मनुष्यभव है। जो उत्तम करणी करके उसके मोक्ष के निकट पहुँच जाता है या उसको प्राप्त कर लेता है वह पुरुष लाभ प्राप्त करनेवाले वणिक के सदृश है, जो स्वर्ग चला जाता है वह द्वितीय वणिक के सदृश है और जो मनुष्यभव को अपनी दुराचारिता से नर एवं पशुयोनि का अतिथि बना लेता है वह पूंजी खो देनेवाले के समान मनुष्यभव को यों ही खो देता है। अतः ऐसी करणी करना चाहिये कि जिससे स्वर्गापवर्ग की प्राप्ति हो सके । यही मानवभव पाने की सफलता है। २९ क्षमा अमृत है, क्रोध विष है। क्षमा मानवता का अतीव विकास करती है और क्रोध उसका सर्वथा नाश कर देता है। क्षमाशील में संयम, दया, विवेक, परदुःखभंजन और धार्मिक निष्ठा ये सद्गुण निवास करते हैं । क्रोधावेशी में दुराचारिता, दुष्टता, अनुदारता, परपीड़कता आदि दुर्गुण निवास करते हैं और वह सारी जिंदगी चिन्ता, शोक एवं संताप में घिर कर व्यतीत करता है । उसको क्षण भर भी शांति से सांस लेने का समय नहीं मिलता। इस लिये क्रोध को छोड़ कर एक क्षमागुण को ही अपना लेना चाहिये, जिससे उभय लोक में उत्तम-स्थान मिल सके। क्षमागुण सभी सद्गुणों की उत्पादक खान है । इस को अपनाने से अन्य सर्व श्रेष्ठ गुण अपने आप मिल जाते हैं। ३० संसार में जितने जीव हैं वे अपने-अपने कृत कर्मों के अनुसार दुराचारी या सदाचारी बन जाते हैं । जो दुराचारी, अधम और अधमाधम हैं उनको दयापात्र समझ कर, उन पर भी समभाव रखना, आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़ना और धर्म-ध्यान में तल्लीन रहना, यह आत्मोन्नति का सरल मार्ग है । सन्त पुरुष कहते हैं कि छिप कर रह संसार में, देख सबन को वेश। ना काहु से राग कर, ना काहु से द्वेष ।। चुपचाप सांसारिक विविध वेशों को देखते रहो, परन्तु किसी के साथ राग-द्वेष
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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