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________________ रे-वचनामृत । श्री राजेन्द्रसूरि-ध किया और खाली अभिमान किया या लोगों को लूंट कर अपनी जेबें तर कर लीं तो यह सत्ता का दुरुपयोग ही है । जिस सत्ता से लोगों का उपकार किया जाय, निःस्वार्थता से लांच ( उत्कोच) नहीं ली जाय और नीतिपथ को कभी न छोड़ा जाय, वही सत्ता का वास्तविक सदुपयोग है, नहीं तो सत्ता को केवल गर्दभ- - भार या दुर्गतिपात्र मात्र समझना चाहिये । २४ जीवों की हिंसा ही आत्मा की हिंसा है और जीवों की दया ही आत्मा की दया है । ऐसा जान कर महान् पुरुष सर्वप्रकार से हिंसा या उसके उपदेश का परित्याग कर देते हैं । संसार में सुमेरु से ऊंचा कोई पर्वत नहीं और आकाश से विशाल कोई पदार्थ नहीं । इसी प्रकार अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं है । इसलिये ' जीवो और जीने दो ' इस सिद्धान्त को अपने जीवन स्थान दो । अपने को जैसा सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसा ही समस्त प्राणिओं के सम्बंध में भी समझना चाहिये । क्योंकि अहिंसा ही तप, जप, संयम और महायज्ञ है । २५ दूसरे जीवों को सुखी करना यह मनुष्य का महान् आनंद है और दुःख - पीड़ित जीवों की उपेक्षा करना मनुष्य के लिये महादुःख है । दूसरे प्राणियों को दुःख या त्रास पहुंचानेवाला मनुष्य शैतान है, अपने ऊपर आये हुए दुःखों को सहन करनेवाला हैवान है और विपत्तिस्त लोगों को सुखी करनेवाला ' इन्शान ' है । इसी प्रकार कामभोग भले ही आमोद-प्रमोदजनक हों, परन्तु उनका अन्तिम परिणाम तो वियोग, कलह और निराशा उत्पन्न करानेवाला ही है । अतः काम-भोगों को दुःखद समझ कर इन्शान को त्याग देना चाहिये, तभी उसकी इन्शानियत सफल मानी जायगी । २६ गुरु- वचनों का सदा आदर करना, गुरु की आज्ञा का यथावत् पालन करना और उसमें न तर्क, वितर्क करना या न शंकाशील होना- -इसीका नाम 'विनय' है । विनय से विद्या, विनय से योग्यता और विनय से ही श्रुतज्ञान का लाभ जल में तैलविन्दु के समान विस्तृत रूप से मिलता है। जिससे संसार में मनुष्य की यशः कीर्ति चारों ओर फैलती है और वह सबका सम्मान - पात्र बनता है । अविनयाभिमुख आत्मा अपने दुर्गुणों के कारण जहां पैर रखता है वहां उसके ऊपर अपमानादि विपत्तियाँ आकर सवार हो जाती हैं । अहंता, दुर्भावना और घनादि की ऐंठ--ये सब अविनयजनक दुर्गुण 1 हैं । इस लिये अविनय को तिलांजली देकर विनय गुण को अपनाओ, जिससे उभय लोक में सुखसंपत्ति की प्राप्ति हो सके । २७ जो मानव खराब आदतों का गुलाम रहता है वह मानवीय गुणों और विश्व
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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