SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ संस्कारिता को कभी नहीं छोड़ता। वह तो विशुद्ध-सुवर्ण के समान विशेष रूप से चमकता रहता है। अतः अपनी वास्तविक प्रगति के जिज्ञासुओं को सुसंस्कारी बनने का शक्तिभर प्रयत्न करते रहना चाहिये। २० आत्मसुधारक सच्ची विद्वत्ता या विद्या वही कही जाती है जिस में विश्वप्रेम हो और विषय-पिपासा का अभाव हो तथा यथावत् धर्मका परिपालन और जीवमात्र को आत्मवत् समझने की बुद्धि हो। स्वार्थिक प्रलोभन न हो और न ठगने की ठगवाजी। ऐसी ही विद्या या विद्वत्ता स्वपर का उपकार करनेवाली मानी जाती है, ऐसा नीतिकारों का मंतव्य है। जो विद्वत्ता, ईर्ष्या, कलह, उद्वेग पैदा करनेवाली है वह विद्वत्ता नहीं, महान् अज्ञानता है । इसलिये जिस विद्वत्ता से आत्म कल्याण हो, वह विद्वत्ता प्राप्त करने में सदोद्यत रहना चाहिये । २१ बिषयभोग बड़वानल के सदृश है । युवावस्था भयानक जंगल के समान है। शरीर इंधन के और वैभवादि वायु के समान हैं। संयोग तथा वैभवादि विषयाग्नि प्रदीप्त करनेवाले हैं । जो स्त्री, पुरुष संयोगजन्य भोगसामग्री मिल जाने पर भी उसका परित्याग करके अखंड ब्रह्मचर्यव्रत का त्रिधा योग से पालन करते हैं, वे संसार में काम. विजेता कहलाते हैं । अखंड़ ब्रह्मचारी स्त्री, पुरुषों का इतना भारी तेज होता है कि उनकी सहायता में देव, दानव, इन्द्र आदि खड़े पैर तैयार रहते हैं और इसी महागुण के कारण वे संसार के पूजनीय और वंदनीय बन जाते हैं। २२ स्वतंत्रता और आत्मशक्ति जब तक प्रगट न कर ली जाय, तब तक आत्मशक्ति का चाहिये वैसा विकास नहीं हो सकता। शास्त्रों का कथन है कि सहनशीलता के बिना संयम, संयम के बिना त्याग और त्याग के बिना आत्मविश्वास होना असंभव है। आत्मविश्वास से ही नर-जीवन सफल होता है । जिस व्यक्तिने नर जीवन पाकर जितना अधिक आत्मविश्वास प्राप्त कर लिया वह उतना ही अधिक शांतिपूर्वक सन्मार्ग के ऊपर आरूढ हो सकता है । अतः संयमी-जीवन के लिये सर्व प्रथम मन को वश करना होगा । मन के वश होने पर इन्द्रियाँ स्वयं निर्बल हो जायंगी और मानव प्रगति के पथ पर चलने लगेगा। २३ सत्तारूढ होने के लिये लोग चढ़ाचढ़ी करते हैं, पारस्परिक लड़ाई कर वैमनस्य पैदा करने के साथ अपने धन का भी दुरुपयोग करते हैं। परन्तु यथाभाग्य किसी को छोटी या बड़ी सत्ता मिल जाती है तो सत्तारूढ होने के बाद अगर जनता का भला नहीं
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy