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________________ श्री राजेन्द्रसूरि-वचनामृत । दुनियां से कुच कर जाना पड़ता है। ऐसा जान कर जो धर्ममार्ग को अपना लेता है, वह परभव में भी सुख प्राप्त कर लेता है । १७ धन, माल, कुटुम्ब-परिवारादि सब नाशवान और निजगुणघातक हैं। इन में रह कर जो प्राणी बड़ी सावधानी से अपने जीवन को धर्मकृत्यों द्वारा सफल बना लेता है, उसीका भवसागर से बेड़ा पार हो जाता है। शेष प्राणी चौराशी लाख योनियों के चक्कर में पड़कर, इधर-उधर भ्रमण करते रहते हैं । अतएव शरीर जब तक सशक्त है और कोई बाधा उपस्थित नहीं है, तभी तक आत्मकल्याण की साधना कर लेना चाहिये। अशक्ति के पंजे में घिर जाने के बाद कुछ नहीं हो सकेगा, फिर तो यहां से कूच करने का डंका बजने लगेगा और असहाय हो कर जाना पड़ेगा। १८ मानवता में चार चांद लगानेवाला एक विनय गुण है । मनुष्य चाहे जितना विद्वान् हो, वैज्ञानिक और नीतिज्ञ हो; परन्तु जब तक उसमें विनयगुण नहीं होता तब तक वह सब का प्रिय और आदरणीय नहीं बन सकता । विनयहीन मानव उदारता, धीरता, प्रेम, दया और आचार व विवेकपूर्वक सुन्दर गुणों को नहीं पा सकता। इसी कारण वह विनयहीन अपनी कार्यसाधना में हताश ही रहता है। किसी भी कार्य में सफलता नहीं पा सकता । गायन करने के समय, नृत्य करने के समय, अभ्यास करने के समय, चर्चावाद करने के समय, संग्राम करने के समय, दुश्मन का दमन करने के समय, भोजन करने के समय और व्यवहार सम्बन्ध जोड़ने के समय, इन आट स्थानों पर विनय (रजा) रखने से हानि होती है । अतः इन स्थानों को छोड़ कर अन्य स्थानों पर विनयगुण को अपनाने वाला व्यक्ति सर्वत्र आदर और प्रेम सम्पादन कर सकता है। १९ जिस प्रकार मृत्तिकानिमित्त कोठी को--ज्यों-ज्यों धोई जाय त्यों-त्यों उसमें गारा के सिवाय सारभूत वस्तु कृछ नहीं मिल सकती, उसी प्रकार जिस मानव में जन्म से ही कुसंस्कार अपना घर कर बैठे हैं उसको चाहे अकाट्य युक्तियों के द्वारा समझाया जाय; परन्तु वह सुसंस्कारी कभी नहीं हो सकता। अगर वह विशेषज्ञ होगा तो अधिक बात से अपने कुसंस्कारों को दृढ़े करने लगेगा। इसीसे कहा जाता है कि 'पड़या लक्षण मिटे न मृओं' यह किंवदन्ति सोलह आना सत्य है । कुसंस्कारी मानव समय आने पर अपनी मलिनताओं को उगले विना नहीं रहता, ज्यों-ज्यों उसको समझाओ त्यों-त्यों वह अधिक मलिनता का शिकार बनता जाता है । जिस मानव में जन्मसिद्ध सुसंस्कार पड़े हुए है वह दुर्जनों के मध्य में लाख विपत्तियों में घिर जाने पर भी अपनी अच्छी
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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