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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक - प्रथ करना पड़ेगा, तब कहीं विवेक की साधना में सफलता मिल सकेगी। कईएक साधक समझदार हो करके भी इन्द्रियों और पाखंडियों की जाल में फंसे रह कर अपने आत्म-विवेक को खो बैठते हैं, और वे पाप कर्मों से छुटकारा नहीं पाते । प्राणीमात्र लोभ और मोह में पढ़ाये हुए, साथ-साथ धर्म और ज्ञान को भी मलिन कर डालते हैं । इसलिये आत्मविवेक उन्हीं व्यक्तियों को मिलेगा जो इन दोनों पिशाचों को अच्छी तरह विजय कर लेंगे । * १४ जो व्यक्ति क्रोधी होता है अथवा जिसका क्रोध कभी शान्त नहीं होता, जो सज्जन और मित्रों का तिरस्कार करता है, जो विद्वान् हो कर के भी अभिमान रखता है, जो दूसरों के मर्म प्रकट करता है और अपने कटुम्बी या गुरुओं के साथ भी द्रोह करता है. किसीको कर्कश वचन बोल कर संताप पहुंचाता है और जो सबका अप्रिय है वही पुरुष अविनीत, दुर्गति और अनादरपात्र कहाता है। ऐसे व्यक्ति को आत्म- तारक मार्ग नहीं मिल सकता; अतः ऐसा कुत्र्यवहार सर्वथा छोड़ देना चाहिये । १५ निन्दा को ही अपना कर्तव्य माननेवाले अज्ञानियों और मिध्यादृष्टि लोगों की ओर से शिर काटने जैसे भी अपराधों में जो समभाव से उनके वचन कंटकों को सह लेता है, परन्तु बदला लेने की तनिक भी कामना नहीं रखता । जो न लोलुप है और न इन्द्रजाली, न मायाचारी है और न चुगलखोर । जो अपनी किसी तरह की प्रशंसा की कामना नहीं रखता और न गृहस्य सम्बंधी कार्यों की सराहना करता है । तरुण, बालक, वृद्ध आदि गृहस्थों का कभी तिरस्कार नहीं करता और स्वयं तिरस्कृत होने पर भी तिरस्कार को बड़ी शान्ति से सह लेता है उसका प्रतिकार नहीं करता । जो अपने कुल, वंश, जाति, ऐश्वर्य का अभिमान नहीं रखता और जो सदा स्वाध्याय - ध्यान में रहता है । जो 'मा दणो मा हणो' सूत्र को जीवन में उतार कर कार्यरूप में परिणत करता है । जो स्वपर का कल्याण करने और ज्ञान, दर्शन, चारित्र के आध्यात्मिक मार्ग का परिपालन में सदा उद्यत रहता है-संसार में ऐसा पुरुष ही पूज्य और समादरणीय माना जाता है । १६ संसार में दुराचारप्रिय लोग पहले से ही नहीं संभलते; किन्तु जब मृत्यु के मुख में पहुँचते हैं, तब अपने दुराचारों को स्मरण में लाकर बहुत पश्चात्ताप करने लगते हैं । दुराचारों के फलस्वरूप अंत समय में वे असाध्य व्याधियों से पीड़ित और चिन्तित हो कर अपने कृत पापकर्मों के लिये परभव की विभीषिका से कांपने लगते हैं । परन्तु उस समय उनका न कोई रक्षक होता है और न कोई भागीदार । असहाय हो उनको रुदन करते हुए
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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