SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिशा-परिवर्तन । तो वे उसे नहीं मानते हुए विशेष उच्छंखल हो कर पतन के गहरे गर्त में ढह जाते हैं। अतः युगप्रभावक को ऐसी परिस्थिति में वातावरण को देखते हुए सही बात को शाब्दिक परावर्तन के साथ प्रकाशित करनी पड़ती है । तभी इस कलम में यतिवर्ग को नौकरादि नहीं रखना यों स्पष्टरूप से नहीं कहते हुए कहा गया है, “ सिपाई खर्च जादा नहीं रखना और जीवहिंसाप्रिय नौकरादि नहीं रखना ।" (८)' गृहस्थानां यद्भूषणं स्यात् , तत्साधूनां दूषणम् स्यात् । यद् साधूनाम् भूषणं स्यात्, तत् गृहस्थानाम् दूषणं स्यात् ।' परिग्रह संयमी वर्ग के संयम का घातक है। क्यों कि धनादि का संचय ही वास्तव में दुःखमूलक और साध्वाचार से विपरीत हैं । उस समय का त्यागी वर्ग धनादि का संचय करने में दत्तचित्त हो गया होगा, तभी इस अष्टम कलम में गुरुदेव यह स्पष्ट करते हैं, " अनुयायी गृहस्थों को दबा या सता कर अथवा उन्हें परिस्थितियों से बाध्य कर उनसे द्रव्यादि अग्राह्य वस्तु नहीं लेना " । इससे स्पष्ट है कि उस समय के त्यागी धन के गुलाम हो गये होंगे, तभी इस बात को इस प्रकार के शाब्दिक परावर्तन से कही गया है । यदि उस समय यह बात स्पष्ट कही जाती तो संभव है यह होती हुई सुधारणा भी असभव हो जाती। तभी आदर्शतम बात को शाब्दिक परावर्तन के साथ उपस्थित करनी पड़ी है। (९) श्रावक, श्राविकाओं को असत्य एवं भ्रामकोपदेश नहीं देना, चोपड़, सतरंज, गंजीफादि नहीं खेलना, मस्तक पर केश नहीं बढाना, जूते नहीं पहनना और नित्य पंचशत (५०० सौ) गाथाप्रमाण स्वाध्याय करना । इस आशय की बातें इस चरम एवं नवमी कलम में कही गई हैं। ये निकृष्टतम प्रवृतियां भी यतिवर्ग में अवश्य प्रवृत्तमान होंगी, तभी इनसे दूर होने को इस कलम में फरमाया गया है। गुरुदेव साधुसमाज को वास्तव में साधुधर्म के सुगूढ़तम रहस्यों को समझा कर उसके जीवन को उच्चतम एवं आदर्शतम बनाने को कितने जागरूक थे यह बात इन नव समाचारी कलमों से ध्वनित होती है। ___ वास्तव में आप जन्मसिद्ध युगप्रभावक एवं जैन संघ में से पाखण्डपरम्परा को नामशेष करनेवाले हैं। आपका त्याग वास्तव में त्याग था कि यतिवर्ग के बाह्याडंबरीय दिखावे से एवं, यदि आप सही सत्य त्यागी नहीं होते तो, अत्याचारों से समाज को नहीं बचा सकते थे। आपने स्वयंने त्याग की वास्तविकता को समझ कर आत्मसात् किया और संसार को भी श्रीवीर के त्यागमय मार्ग को समझाया । ___ वंदन हो ऐसे विमलमति युगप्रभावक के चरणों में । १५
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy