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________________ ११२ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यही सात्विकायुध शोभा देते हैं । अन्य नहीं । साधु वास्तव में अहिंसा की प्रतिकृति है, संसार के संत्रस्त प्राणी यहाँ आ कर अभय होते हैं और यदि यहां भी भय का साम्राज्य हो जाय तो प्राणी कहां जाकर अभयलाभ प्राप्त कर सकते है। (४) स्त्रियों के साथ एकान्त स्थल में बैठ कर वार्तालाप नहीं करना और न वेश्या तथा नपुंसकादि को प्रश्रय ही देना इस चौथी कलम में कहा गया है । इस से ज्ञात होता है कि यतिसमाज साध्वाचार के मूलगुण ब्रह्मचर्य के पालन में शिथिल हो कर कामवासना के ज्वर से उत्पीडित हो अनाचार करने में रत हो गया था। तभी तो बालब्रह्मचारी गुरुदेव यतिसमाज को सावधान करते हैं। वास्तव में श्रमण तभी श्रमणत्व को प्राप्त हो सकता है कि जब वह पंचयाम व्रतों को चारुतया पालन कर उन्हें आत्मसात् करलें । जो श्रमण वास्तव में ब्रह्मचर्य पालन में शिथिल है वह श्रमण नहीं पापश्रमण है । (५) व्यसनों का गुलाम बन कर प्राणी आत्मसाधना में आलस्याभिभूत हो प्राप्त समय एवं सामग्री का सदुपयोग नहीं कर दुरुपयोग ही कर बैठता है और जिसका फल संसारभ्रमण प्राप्त होता है। इस पांचवीं कलम का आशय यतिमंडल को व्यसनों की कातील गुलामी से परे करना ही है। तभी उन्हें भांग-गांजा-अफीम-तमाकू इत्यादि नशीली एवं तामसी वस्तुओं का उपभोग नहीं करने को कहा गया है । गुरुदेवने इस नियम में यतियों को व्यसन और तत्सेवी व्यसनियों का सहवास नहीं करने का स्पष्टतया निषेध किया है। (६) शास्त्रों में साधु को साधुजीवन में प्रविष्ट होने के पश्चात् स्नान-विलेपनादि शृंगारिक सामग्री का उपभोग करने की मनाई की गई है। त्यागीवर्ग त्रिकरण, त्रियोग से महाव्रतों को धारण करनेवाले होते हैं । अतः उन्हें ऐसी प्रवृत्तियाँ कदापि शोभा नहीं देतीं । दशवैकालिक सूत्र में इन शृंगारिक प्रवृत्तियों को अनाचार कहा गया है। स्नानादि के अतिरिक्त सचित्त वनस्पत्यादि का सेवन भी होता होगा, तभी इस कलम में इस प्रकार के कार्यों को नहीं करने का कहा गया है । गुरुदेव त्यागी वर्ग को वास्तविक श्रमणत्व का रहस्य समझा कर उसमें उन्हें सुदृढ़ करने के लिये कितने जाग्रत एवं प्रयत्नशील थे इस का मर्म इस नियम से भलीभाँति ज्ञात हो सकता है। (७) यति लोग राजाओं की तरह अपने पास भी छोटा सा सैन्य रखते थे, तभी इस नियम में इस विषय को स्पष्ट किया गया है । इस नियम की शब्दमाला से यह भी भली प्रकार स्पष्ट है कि युगप्रभावक महापुरुषों को ऐसी परिस्थितियों से प्रसारित होना पडता है कि जो विचित्र होती हैं। जिससे बाध्य हो कर सही बात को शब्द-परावर्तन के साथ प्रगट करनी पड़ती है। क्योंकि पार्श्वस्थों के सामने यदि सही बात को सही रूप में रख दी जाय
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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