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________________ दिशा-परिवर्तन । ऐसी परुपणा देणी नहीं जणी में उलटो उणा को समकित बिगडे ऐसी परुपणा देणी नहीं । ओर रात को बारणे जावे नहीं ओर चोपड़ सतरंज गंजीफा वगेरा खेल रामत कहीं खेले नहीं केश लांबा बधावे नहीं पगरखी पेरे नहीं और शास्त्र की गाथा (५००) पांच सौ रोज सज्झाय करणा। इणी मुजब हमें पोते पण बराबर पालांगां ने ओर मुंड़े अगाड़ी का साधुवां ने पण मरजादा मुजब चलावांगा ने ओर श्रीपूज आचार्य नाम धरावेगा सो बराबर पाले ही गा, कदाच कोई उपर लख्या मुजब नहीं पाले ने किरिया नहीं सांचवे जणीने श्री संघ समजायने को चाहिजे श्री संघरा केणासु नहीं समजे ने मरजादा मुजब नहीं चाले जणां श्रीपूज्य ने आचार्य जाणणो नहीं ने मानणो नहीं । श्री संघ की तरफ सुं अतरो अंकुश वण्यो रखावसी सो उपर लख्या मुजब श्रीपूज्य तथा साधु लोग अपनी अपनी मुरजादा मुजब बराबर चालसी कोई तरेसुं धर्म की मुरजादा में खामी पड़सी नहीं। श्री संघने उपर लख्या मुजब बन्दोबस्त जरूर राख्यो चाहिजे. अठासुं हमारे साधु लोगारां दसकत करायने भेज्या हे सो देख लेरावसी सं. १९२४ माह सुदि ७ । पं. मोतिविजेना दसकत. पं. देवसागरना दसकत. पं. केसरसागरना दसकत. पं. नवलविजेना दसकत . पं. विरविजेना दसकत. पं. खीमाविजेना दसकत. पं. लब्धिविजेना दसकत. पं. ज्ञानविजेना दसकत. पं. सुखविजेना दसकत।' ये हैं नव कलमें, जो यतिपूज्य धरणेन्द्रसूरि से स्वीकृत करवाई गयी थीं। इनकी वाक्यावली से हम उस समय की त्यागी समाज की शिथिलावस्था को भली भाँति समझ सकते हैं और योगीन्द्र राजेन्द्रसूरीन्द्र के संघसुधार की उच्चतम भावना को भी । हाँ नियमगत वाक्यावलियों की सहाय से तत्कालीन स्थिति का भी अवलोकन करलें (१) उस समय का यतिसमाज जैन मुनि को उचित ऐसे आवश्यक विधिविधान के पालन में शिथिलाचारी था, तभी तो गुरुदेव प्रथम नियम में ही प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, प्रत्याख्यान करने के लिये खास भार देते हैं तथा यंत्र, मंत्र और तंत्रक्रिया से साधुवर्ग को परे रहने को और साधु को अग्राह्य ऐसी धातु की वस्तुओं को संग्रह नहीं करना कहते हैं। यति एवं साधु कंचन -कामिनी के त्यागी होते हैं ऐसी शास्त्रीय आज्ञा को गुरुदेवने श्रमणसंघ को समझा कर आचरण कराने को कहा है। (२) यतिसमाज घोड़े, रथ, पालखी इत्यादि वाहनों में बेशुमार धन व्यय करता था, तभी तो इस द्वितीय कलम में गुरुदेव वाहनादि नहीं रखने का स्पष्टतया निषेध करते हैं। शास्त्र भी साधु को गमनागमनक्रिया किसी वाहन के उपयोग के बिना ही करने की आज्ञा देते हैं। (३) यतिमंडल अपने को जनता के गुरु होने से राजा-महाराजा की पंक्ति में गिनते थे। तलवार, भाला, बरछी आदि विविध आयुधों का संग्रह करते थे, तभी इस तृतीय कलम में उनका रखना अयोग्य कहा जा कर मना किया गया है। धर्मराज के संचालक को तो अहिंसा,
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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