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जैन साहित्य में दासों की स्थिति
323 पर अन्य गुरूत्तर कार्यों को सम्पन्न कराते थे। क्रीत दास
जैनागमों में कुछ ऐसे भी विवरणं मिलते हैं जहां राजपुरूषों द्वारा अपने कार्यों में सहयोग हेतु विविध देशों से लाये गये दास-दासियों को नियुक्त किया गया है। इसमें (पुरूष) दासों की अपेक्षा दासियों का उल्लेख ही अपेक्षाकृत अधिक हुआ है। विदेशी दासियों में चिलातिका (चिलात-किरात देश में उत्पन्न), बर्बरी (बर्बर देशोत्पन्न), बकुश देश की तथा योनक, पल्हविक, ईसनिक, लकुस, द्रविण, सिंहल, अरब, पुलिंद, पक्कण, बहल, भुरूंड, शबर, पारस आदि का नामोल्लेख हुआ है। ये दासियां अपने-अपने देश के वेश धारण करने वाली, इंगित, चिन्तित, प्रार्थित आदि में निपुण, कुशल एवं प्रशिक्षित होती थीं। इन तरूण दासियों को वर्षधरों (नपुंसक पुरूष), कंचुकियों और महत्तरकों (अतःपुर के कार्यों की चिन्ता रखने वाले) के साथ राजपुत्रों के लालन-पालन हेतु नियुक्त किया जाता था। विदेश से मंगवाई गई दासियों का विवरण उस समय समाज में दासों के क्रय-विक्रय का संकेत प्रस्तुत करता है जिसकी पुष्टि केश-वाणिज्य" के अंतर्गत दास-दासियों की खरीद-फरोख्त (पशुओं के समान) किये जाने से होती है। युद्धदास युद्ध में विजयी पक्ष, पराजित राज्य की विविध धन-सम्पदा के साथ-साथ मनुष्यों एवं स्त्रियों को भी बंदी बना लेता था। इनमें से कुछ अति विशिष्ट स्त्रियों को तो धनसम्पन्न व्यक्तियों द्वारा पत्नी के रूप में ग्रहण कर लिया जाता था जबकि शेष (बहुसंख्यक) पुरूषों एवं स्त्रियों को दासवृत्ति स्वीकार करने के लिये संत्रस्त किया जाता था। संभवतः अपने उपयोग से अधिक संख्या होने पर इन्हें उपहार या पारिश्रमिक के रूप में भी दिया जाता था। दुर्भिक्षदास एवं ऋणदास इसके अतिरिक्त दुर्भिक्ष के समय उदरपूर्ति हेतु एवं आवश्यकता हेतु लिये गये ऋणों की समय पर अदायगी न किये जाने से ऋणी की अल्पकालिक अवस्था जीवनपर्यन्त दासता स्वीकार करनी पड़ती थी।" उस समय वणिक अथवा गाथापति लोगों को आवश्कतानुरूप कर्ज वितरीत करते थे। परिस्थितिवश अगर निर्धारित अवधि में ऋण लेने वाला व्यक्ति उसका सम्यक् भुगतान करने में असमर्थ रहता था तो उससे कहा जाता था कि या तो तुम कर्ज चुकाओ, अन्यथा गुलामी करो। धात्रियां दास एवं दासियों के अतिरिक्त उस समय प्रायः सम्पन्न परिवारों में नवजात शिशुओं के पालन, संरक्षण, संवर्द्धन एवं विकास हेतु दाइयों की नियुक्ति की जाती थी। जैन सूत्रों में राजपरिवार में विविध देशों से लायी गयी दासियां जिन्हें कार्यानुसार पांच कोटियों में विभक्त किया गया है, उसमें क्षीरधात्री (खीरधाईए), मंडनधात्री (मंडनधाईए), भज्जनधात्री (मज्जणघाईए), अंकधात्री (अंकधाईए) एवं क्रीडापनधात्री (कीलावणधाईए) उल्लेखनीय हैं। ये दाइयां बच्चे को दूध पिलाने, वस्त्रालंकारों से सज्जित करने, स्नान कराने, गोद में लेकर बच्चे को खिलाने तथा क्रीड़ादि कराने में संलग्न रहती थीं।६ दाइयों की स्थिति दासियों की अपेक्षा अधिक उन्नत होती थी। इसका कारण यह था कि दाइयों का स्वामीपुत्रों या पुत्रियों से न केवल तब तक सम्बन्ध रहता था, जब तक कि वे नादान रहते थे, वरन् वे उनका उचित मार्गदर्शन वयस्क हो जाने पर भी करती थीं। राजपुत्रों के प्रव्रजित होते समय माता के साथ दाइयों (अम्माधाई) के भी जाने का उल्लेख मिलता है। अम्माधाई राजपुत्र के वामपार्श्व में स्थारूढ़ रहती थी। दासों के कार्य जैन आगम ग्रन्थों में परिवार में रहते हुए घर के काम-काज में तत्पर दासों का विवरण मिलता है। घर के आंतरिक
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