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जैन साहित्य में दासों की स्थिति
डॉ. महेन्द्र नाथ सिंह एवं
अरविन्द कुमार सिंह
जैन आचार्यों ने दासों की गणना बाह्य परिग्रहों में करते हुए श्रमणों के लिये इनके प्रयोग का निषेध किया है। इसके विपरीत गृहस्थों के लिये इन्हें सुख का कारण बताया गया है तथा इनकी गणना भोग्य वस्तुओं के साथ की गयी है। उस समय केवल राजा एवं कुलीन व्यक्ति ही दासों के स्वामी नहीं होते थे, बल्कि धनसम्पन्न गाथापतियों एवं गृहस्थ भी अपने यहां दासों को नियुक्त कर उनसे सहयोग प्राप्त करते थे। सामान्यतया सेवावृत्ति दासों का प्रधान धर्म था। अतः उनकी स्थिति को सोचनीय मानते हुए वर्णित है कि महावीर के उपदेश में जिस प्रकार पाप दृष्टि वाला कुशिष्य हितानुशासन से शासित होने पर अपने को हीन समझता है, उसी तरह दास को भी हीन समझा जाता था। दासों के ऊपर दासपतियों को पूर्ण आधिपत्य प्राप्त था। अतः विवाह आदि अवसरों पर विविध वस्त्राभूषणों के साथ प्रीतिदान के अंतर्गत इन्हें भी सम्मिलित कर लिया जाता था। इस प्रकार प्रीतिदान अथवा भेंट के रूप में दिये जाने पर दानों को श्वसुर पक्ष के अन्य सदस्यों के साथ गिना जाता था। दासता के कारण जैन आगम साहित्य में दास विषयक उल्लेखों के आधार पर दासों के प्रकार अथवा दासवृत्ति अपनाने के पीछे कार्यरत कुछ प्रमुख हेतुओं को विवेचित किया जा सकता है। स्थानांगसूत्र (४ १६१-अ) में छः प्रकार के दासों का उल्लेख किया गया है। इसमें जन्म से ही दासवृत्ति स्वीकार करने वाले, क्रीत (खरीदे) हुए दास, ऋणग्रस्तता से बने हुए, दुर्भिक्षग्रस्त होने पर, जुर्माने आदि को चुकता न करने से तथा कर्ज न चुका सकने के कारण बने दास उल्लेखनीय हैं।' जन्मदास दास एवं दासी के साथ उसकी संतति पर भी दासपति के अधिकारों के हमें प्रमाण प्राप्त होते हैं। इसके अनुरूप यह कहा जा सकता हैं कि दासियों द्वारा पुत्र-प्रसव करने के उपरान्त उस पर स्वामी का स्वतः अधिकार स्थापित हो जाता है। स्वामी की देख-रेख में बाल्याकाल से ही इनका पालन-पोषण किया जाता था। प्रारंभिक अवस्था में ये स्वामीपुत्रों का मनोरंजन करते तथा उन्हें क्रीड़ा कराते थे। कभी-कभी अपने स्वामी को भोजन आदि पहुंचाते थे तथा बड़े होने
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