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Sumati-Jñāna कार्यों में इनमें अत्यधिक सहयोग प्राप्त किया जाता था । दास तथा दासियां परिवार में प्रायः राख तथा गोबर आदि फेंकने, सफाई करने, साफ किये गये स्थल पर पानी छिड़कने, पैर धुलाने, स्नान कराने, अनाज को कूटने, पीसने, झाड़ने और दलने तथा भोजन बनाने में अपने स्वामी अथवा स्वामिनी को सहयोग करते थे। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि दास एवं दासियों के अतिरिक्त उनकी सन्तति पर भी दासपतियों का प्रायः आधिपत्य रहता था । दासचेट अपने मालिक के बच्चों का मनोरंजन तथा क्रीड़ादि कराते थे एवं स्वामी को भोजन आदि पहुंचाते थे । २० दास चेटियां अपने स्वामिनी के साथ पूजा - सामग्री (फूलों की छाबड़ियों तथा धूप की कुछड़िया) लेकर मंदिरों में भी जाती थीं ।" दासों की नियुक्ति कभी - कभी ( सम्पन्न परिवारों अथवा राजघरानों में) अंगरक्षकों (वर्षघर - अंतःपुर रक्षक) के रूप में भी होती थी और दासियों की सेवा-सुश्रुषा करने के लिये अंगपरिचारिकाओं के रूप में नियुक्त किया जाता था। इन्हें आभ्यांतर दासी कहा जाता था। ये अपने मालकिन के चिंतित होने पर उसका कारण खोजती, तत्पश्चात् स्वामी से उसका निवेदन कर निराकरण हेतु प्रार्थना करती थीं । २२ दास-दासियां कभी - कभी संदेशवाहक अथवा दूत के रूप में भी प्रयुक्त किये जाते थे और अपने स्वामी के गोपनीय कार्यों का सम्पादन करते थे । अतः इन्हें प्रेष्य कहा जाता था । २३
दास-दासियों के विशिष्ट कार्य
कतिपय दासियां राजकन्याओं के साथ स्वयंवर में भी जाती थीं। उसमें कुछ दासियां लिखने का कार्य (लेखिका) करती थीं तथा कुछेक दर्पण लेकर उपस्थित जनसमूह के प्रतिबिम्ब को (स्वामी कन्या) दिखलाकर तत्संबंधित गुण-दोष का बखान करती थीं। इसके अतिरिक्त उस काल में रूप एवं सौन्दर्य सम्पन्न (दासी - तरूणी) दासियों की उपस्थिति स्वामीपुत्रों के अति नजदीक रहती थीं।
दासों का जीवन
यद्यपि भगवान महावीर के अहिंसा महाव्रत के समर्थक एवं बहुसंख्यक सहृदय दासपति, दासों को अपने पारिवारिक सदस्यों के साथ नियुक्त कर उनका सम्यक् पालन-पोषण कर उदारता का प्रदर्शन करते थे तथा उन्हें देवानुप्रिय जैसे शब्दों से संबोधित करते थे। उपासकदशांगसूत्र में अहिंसा व्रत के अतिचारों के अंतर्गत दासों को बांधने, जान से मारने, बहुत अधिक बोझ लादने तथा अत्यधिक श्रम लेने जैसे अनाचारों को भी सम्मिलित किया गया है। लेकिन कभी-कभी दासों द्वारा विवेकहीन कर्मों का निष्पादन करने पर स्वामी द्वारा उन्हें प्रताड़ित किया जाता था। २७ कतिपय क्रूर दासपतियों द्वारा दासों को अकारण ही प्रताड़ित किया जाता तथा उनके सामर्थ्य से परे कार्यों में लगाकर पीड़ा पहुंचायी जाती थी। जनसामान्य अपनी आवश्यकतानुसार परिवार में दासों की नियुक्ति करते तथा इनके भरण-पोषण का ध्यान रखते थे। इसके बावजूद उनकी गणना भोग्य वस्तुओं में करके इनकी स्वतंत्रता को कर दिया जाता था। जैनागमों के काल में दास-दासियों का क्रय-विक्रय, उपहार एवं पारिश्रमिक के रूप में दिया जाना तथा उन्हें प्रताड़ित करना एवं जीवनपर्यन्त पराधीनता आदि तथ्य उनकी शोचनीय सामाजिक स्थिति की ओर बरबस ध्यान आकृष्ट कराते हैं।
दासपन से मुक्ति
जैन ग्रन्थों मे कुछ ऐसे भी संदर्भ प्राप्त होते हैं, जहां दासों द्वारा किये गये शुभ संदेश से खुश होकर दासपति उन्हें दास वृत्ति से मुक्ति प्रदान कर देते थे। ऐसी स्थिति में दास-दासियों का मधुर वचनों से तथा विपुल पुष्पों, गन्धों, मालाओं और आभूषणों से सत्कार - सम्मान करके इस तरह की आजीविका की व्यवस्था कर दी जाती थी कि जो उनके पुत्र-पौत्रादि तक चलती रहे । दासों को मुक्त करते समय उनका मस्तक" धोना अथवा मस्तक प्रक्षालित करना दासता से मुक्ति का प्राथमिक एवं महत्वपूर्ण लक्षण माना जाता था । इसके अतिरिक्त वह व्यक्ति जो दुर्भिक्ष अथवा अन्य अवसर
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