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Sumati-Jñāna
सैद्धान्तिक ग्रन्थों के प्रणयन से नवीं शती तक जो अंतर आ गया था उसके लिए वर्ण व्यवस्था को स्वीकार किया गया । वर्ण व्यवस्था उस समय की आवश्यकता बन गयी थी ।
एक सिद्धांत आचार्य सोमदेव ने प्रतिपादित किया। जिनसेन की तरह सोमदेव ने वर्ण व्यवस्था संबंधी वैदिक मान्यताओं का जैनीकरण नहीं किया वरन् उन्हें वैदिक रूप में ही स्वीकार किया। उनके मत में सामाजिक जीवन के निर्वाह के लिए यदि कोई उन्हें स्वीकृत करता है तो करे। लेकिन पारलौकिक धर्म के संदर्भ मे जैन आगम ही मात्र प्रमाण हैं। गुण के सिद्धांत का वर्णन पद्मपुराण में दिया है जिसके अनुसार वर्ण-व्यवस्था गुणों के अधीन है, जाति के नहीं।* धर्म परिक्षा में लिखा है कि पवित्र आचार का धारक ही ब्राह्मण कहा जाता है। संयम, नियम, शील, तप, दान और दया गुण तात्विक रूप में जिस किसी भी जाति में विद्यमान हों, वह पूजनीय है। गुणों से अच्छी जाति प्राप्त होती है और गुणों का नाश होने से वह भी नष्ट हो जाती है। कोई भी जाति निंदनीय नहीं है । गुण कल्याण कारक हैं। यही कारण है कि व्रत धारण करने वाले चाण्डाल को भी गणधरदेव ब्राह्मण कहते हैं।” योग्यता के अनुसार शूद्र को भी दीक्षा दी जा सकती है। २२
विभिन्न वर्णों की स्थिति
जैन पुराणों में जैन सिद्धांतों के अनुसार आचरण करने वाले ब्राह्मणों को उच्च स्थान दिया गया है। पद्मपुराण में लिखा है कि यथार्थ में ब्राह्मण वही कहलाते हैं जो अहिंसा व्रत का पालन करते हैं, जो महाव्रत रूपी लंबी चोटी को धारण करते हैं, क्षमा रूपी यज्ञोपवीत से सहीत हैं, ध्यान रूपी अग्नि में होम करने वाले हैं, शांत हैं तथा मुक्ति को सिद्ध करने में तत्पर हैं।" जो यज्ञ आदि में पशुओं को मारकर हिंसा करते हैं ऐसे ब्राह्मण धर्म विरोधी हैं। पद्मपुराण में पुनः उल्लेख है कि समस्त गुणों के वृद्धिगत होने के कारण भगवान ऋषभदेव ब्रम्हा कहलाये और जो सत्पुरूष उनके भक्त हैं वे ब्राह्मण हैं।" ब्राह्मणों के संदर्भ में फूलचन्द्र शास्त्री का मत है कि भरत चक्रवर्ती ने जिन व्रती श्रावकों को आमंत्रि कर ब्राह्मण उपाधि देकर सम्मान किया वे पूर्व में क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्ण के मनुष्य थे। पद्मपुराण एवं हरिवंशपुराण के अनुसार ब्राह्मण संज्ञा लोक में जन्मा या कर्म के आधार पर प्रचलित न होकर व्रतों के आधार पर ही प्रचलित हुई थी। जैन सूत्रों में ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों को श्रेष्ठता प्रदान की गई है। जैन धर्म में कोई भी तीर्थकर क्षत्रिय कुल के सिवाय अन्य कुल में जन्में नहीं बताये हैं। जैन कथा - कहानियों में क्षत्रियों की अपेक्षा ब्राह्मणों को निम्न ठहराया गया है। फिर भी समाज में ब्राह्मणों का स्थान ऊंचा था। भरत के क्षात्र धर्म का सार यह है कि क्षत्रिय समस्त वर्णों में उत्तम व उन्नत वर्ण है और वह रत्नत्रय के सद्भाव के कारण सर्वोत्कृष्ट धर्माधिकारी है। जैन पुराणों में वैश्य वर्ण की उत्पत्ति उनकी आजीविका व्यापार - वाणिज्य के कारण निश्चित हुई । " वैश्यों को जैन धर्म का अनुयायी कहा गया है।
जिनसेन ने शूद्रों पर बहुत प्रतिबन्ध लगाये जैसे - वे न मंदिर में प्रवेश कर सकते, न दीक्षा ले सकते, उनका उपनयन संस्कार नहीं हो सकता, यज्ञोपवीत नहीं धारण कर सकते आदि । देव पूजा व छहकर्म केवल आर्य ही कर सकते थे। दूसरी ओर कुछ आचार्य शूद्रों को वह सब अधिकार देने को तैयार थे जिन्हें जिनसेन नहीं देना चाहते थे। जिनसेन की सभी क्रियाएं द्विजों के लिए थीं। " सागर धर्माकृत के अनसार छह कर्मों से आजीविका करने वाला गृहस्थ पूजाओं, स्वाध्याय व संयम वृत्तियों का अधिकारी है। पूजा का अधिकार शूद्रों को पूजा सागर में भी दिया है।" जीवस्थान चूलिका के अनुसार शूद्र द्वारा प्रथम सम्यकत्व की प्राप्ति धर्मोपदेश व जिनदर्शन आगम द्वारा सिद्ध होती है । " मलेच्छ या चाण्डाल जो भी दया से और सत्संगति से युक्त है वह पाप से मुक्त हो जाता है तथा वैसे ही देव होता है जैसे उत्तम पुरुष । नीच, उच्च और मध्यम कुलों में ग्रहों की पंक्ति के अनुसार चारिका करतें हुए मुनि अज्ञात और अनुज्ञात भिक्षा को मौनपूर्वक स्वीकार करते हैं। मनुष्य का जातिगत अपमान हो इसे जैन धर्म की आत्मा स्वीकार नहीं करती
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