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वर्ण एवं जाति विषयक जैन सिद्धांत
319 होते यहाँ तक कि मूलाचार, भगवती आराधना एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार जैसे चरणानुयोग ग्रन्थों में तथा सर्वार्थसिद्धी
और राजतंत्रिक जैसे सर्वविषयक गर्भ टीका जैसे ग्रन्थों में भेदों का उल्लेख नहीं मिलता है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि वर्ण के आधार से धर्माधर्म के विचार की पद्धति बहुत ही अर्वाचीन है जो आगम सम्मत नहीं है। स्पष्ट है कि परिस्थितिवश वैदिक धर्म के प्रभाव से इसे जैन साहित्य में स्थान दिया गया है। वर्णाश्रम-व्यवस्था की वैदिक मान्यताओं का प्रभाव सामाजिक जीवन के रग-रग में इस प्रकार बैठ गया था कि इस व्यवस्था का घोर विरोध करने वाले जैन धर्म के अनुयायी भी इसके प्रभाव से न बच सके। ६ शती ई. में ही आचार्य जिनसेन ने वैदिक नियमापनियमों का जैनीकरण करके उन पर जैन धर्म की छाप लगा दी थी। जिनसेन के करीब सौ वर्ष बाद सोमदेव हुए। वे अगर विरोध भी करते तो भी सामाजिक जीवन में से उन मान्यताओं को प्रथक करना संभव न था, इसीलिए उन्होनें यशस्तिलक में चिन्तन दिया कि गृहस्थों का धर्म दो प्रकार का हैं - लौकिक एवं पारलौकिक । लौकिक धर्म लौकाश्रित है तथा पारलौकिक आगमाश्रित, इसलिए लौकिक धर्म के लिए वेद और स्मृतियों का प्रमाण मान लेने में हानि नहीं है।" उद्भव संबंधी सिद्धांत वर्ण व्यवस्था का विकास क्रमशः धीरे-धीरे इतिहास की घटनाओं के संदर्भ में हुआ। इसे पूर्ण रूप से विकसित होने में सहस्त्रों वर्ष लगे। विभिन्न वर्गों के कर्तव्य निर्धारण में गुणात्मकता, व्यवसाय, वैज्ञानिक पद्धति और समाज की आवश्यकता को प्रधानता दी गई। जैन सैद्धान्तिक ग्रन्थों में सामाजिक व्यवस्था से संबंधित किसी सिद्धांत का वर्णन नहीं है लेकिन सातवीं शती ई. में जैन आचार्यों द्वारा प्रणीत पौराणिक ग्रन्थों में वर्ण व्यवस्था संबंधी मन्तवयों का वर्णन मिलता है। जैनाचार्यों के मत में जन्म से केवल मनुष्य जाति उत्पन्न होती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह जाति भेद नहीं हैं। चारों वर्ण कर्मों के कारण ही अस्तित्व में आये।" कर्म पर आधारित व्यवस्था का सर्वप्रथम संकेत समन्तभद्राचार्य ने अपने स्वयंभूस्त्रोत (प्रथम शताब्दी) में दिया है कि ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों का उपदेश दिया। महापुराण में लिखा है कि व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रों के धारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक अर्थ का अर्जन करने से वैश्य और निम्न श्रेणी की आजीविका का आश्रय लेने से शूद्र कहलाये।३ कर्मणा सिद्धांत के अनुसार मनुष्य अपने कर्म के अनुसार वर्ण को प्राप्त करता है। अच्छा कर्म करने वाले का जन्म मनुष्य योनि में एवं समाज द्वारा प्रतिस्थापित ऊंचे वर्ण में होता है और बुरे कर्म वाले का जन्म अशुभ योनि में।" जैन धर्म में कर्म मूलक सिद्धांत अधिक मान्य था यही कारण था कि उत्तराध्ययन सूत्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों के विभाजन का मूल आधार कर्म ही माना गया है। उसके अनुसार यदि चाण्डाल भी व्रत में रत है तो वह भी ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी होता है। यही विचार गुणभद्र ने व्यक्त किया है कि मनुष्यों में जातिगत भेद नहीं होता।" जैन आचार्यों के मतानुसार समाज में मनुष्य कर्मों के आधार पर ही विभाजित हुआ। बरांग चरित में लिखा है कि इस लोक में न कोई ब्राह्मण जाति है, न क्षत्रिय जाति है और न वैश्य या शूद्र जाति का ही है, किन्तु जीव कोवश संसार चक्र में परिभ्रमण करता है।'६
एक अन्य सिद्धांत के प्रतिपादक महापुराणकार जिनसेन हैं। जिनसेन के पूर्व पद्मपुराण व हरिवंश पुराण में ऋषभदेव एवं भरत द्वारा आजीविका के आधार पर एवं गुण-कर्मों के अनुसार वर्गों का विभाजन मिलता है। जिनसेन ने कर्म के सिद्धांत को आत्मसात करते हुए श्रोत-स्मृति मान्यता का जैनीकरण कर लिया। ऋग्वेद में विराट पुरूष द्वारा वर्ण उत्पत्ति बतायी गयी है जबकि जिनसेन ने ऋषभदेव द्वारा उत्पत्ति बताई है। सामाजिक व्यवस्था के लिए दिगम्बर
जैन साहित्य में कोई ग्रन्थ नहीं था एवं जैनानुयायियों को वैसे धार्मिक ग्रन्थ की आवश्यकता होगी जो समाज का दिशा-निर्देशन कर सके क्योंकि वैदिक ग्रन्थ ऐसा ही कार्य कर रहे थे। स्वतन्त्र अस्तित्व व समन्वय की दृष्टि एवं
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