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________________ प्राकृत भाषा की प्राचीनता एवं सार्वजनीनता भैरव - पद्मावती-स्तोत्र, इन्द्रनन्दि कृत चन्द्रप्रभ स्तोत्र, देवेन्द्र सूरि (13वीं सदी) कृत भव - शाश्वत चैत्य-स्तव एवं धर्मघोष सूरि (14वीं सदी) कृत भव-स्तोत्राणि किसी अज्ञात कविकृत वैराग्य शतक (17वीं सदी), लक्ष्मीलाभ गणि कृत वैराग्यरसायण- प्रकरण एवं मुनि पद्मनन्दि कृत चन्द्रप्रभ-स्तुति आदि भक्ति की गंगा-यमुना प्रवाहित करने वाले माने गये हैं। 81 प्राकृत का चरित-काव्य-साहित्य- (लगभग 22 प्रमुख ग्रन्थ) प्राकृत-भाषात्मक चरित-काव्यों की कथावस्तु शलाका तथा शलाकेतर महापुरुषों के जीवन तथ्यों से सम्बंधित पाई जाती हैं। प्रारम्भिक चरित-काव्य रामकथा से प्रारम्भ होता है। इसमें आचार्य विमलसूरि ( प्रथम सदी के लगभग) कृत पउमचरियं (पद्मचरित अपरनाम राम - चरित) सर्वप्रथम लिखित है। आचार्य विमलसूरि के सम्मुख सम्भवतः पूर्व में लिखित कोई भी एकबद्ध प्राकृत-भाषात्मक पद्मचरित काव्य न था। रामकथा संबंधी सूत्र-संकेत मात्र थे। भले ही उनका कुछ विवरणात्मक विस्तार हुआ हो, फिर भी वह पूर्ण विकसित रूप न ले सका होगा अन्यथा विमलसूरि उसे कण्ठ- परम्परा से प्रचलित नामावली - निबद्ध मात्र की संज्ञा न देते, जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है णामावलिय- णिबद्ध आयरिय परंपरागयं सव्वं । वोच्छामि पउमचरियं अहाणुपुव्विं समासेण । ( 1/8 ) विमलसूरि ने ग्रंथ - रचना में मूल स्रोत के प्रसंग में यह स्पष्ट रूप से बतलाया है कि - मैंने रामकथा संबंधी जो वृत्तान्त सुना था, वह केवल नामावली - निबद्ध मात्र था, सुसंगठित कथा का रूप उसमें नहीं था। अतः उसी कण्ठ परम्परा से प्राप्त नामावली के आधार पर मेरे द्वारा इस पउमचरिय अथवा राम चरित की क्रमबद्ध-कथा का लेखन कार्य किया जा रहा है। कवि ने अपने इस चरित-काव्य को 7 अधिकारों (सर्गो) में विभक्त किया है यथा- (1) विश्व की स्थिति का वर्णन । (2) राम की वंशोत्पत्ति । (3) युद्ध के लिये लंका के लिये प्रस्थान । ( 4 ) राम-रावण युद्ध । (5) लवणांकुश - उत्पत्ति । (6) राम का परिनिर्वाण एवं (7) पूर्वभवान्तर । Jain Education International उक्त अधिकार 118 उद्देश्यों (उपाधिकारों) में विभक्त हैं। उक्त पउमचरिय-ग्रंथ परवर्ती आचार्य-लेखकों के लिये प्रेरणा-स्रोत बन गया। आचार्य रविषेण (आठवीं सदी) तो उससे इतने प्रभावित थे कि कुछ शोधार्थियों के अनुसार उसे उन्होंने अपने पद्मचरित (संस्कृत) के लेखन के लिये न केवल आधार बनाया, अपितु कहीं-कहीं उसका छायानुवाद भी कर लिया। रविषेण के परवर्ती संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, राजस्थानी एवं हिन्दी भाषा के पद्मचरितों अथवा रामचरितों के लिये उक्त ग्रंथ ही प्ररेणा स्रोत बना रहा। महापण्डित राहु सांकृत्यायन की गहन खोजों के अनुसार महाकवि स्वयम्भू (8वीं सदी) कृत अपभ्रंश- पउमचरिउ का गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस पर पूर्ण प्रभाव है। इस विषय पर उनका एक तुलनात्मक शोधपरक विस्तृत निबन्ध भी प्रकाशित हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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