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स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
दारिदय तुज्झ णमो जस्स पसाएण एरिसी रिद्धि । पेच्छामि सयललोए ते मह लोया ण पेच्छति ।। (गाथा - 139 )
अर्थात् हे दरिद्रते, तुझे नमस्कार करता हूँ। क्योंकि तेरी कृपा से मुझे ऐसी ऋद्धि प्राप्त हो गयी है कि जिसके कारण मैं तो सब लोगों को देख लेता हूँ किन्तु मुझे कोई भी नहीं देखता ।
इसी प्रकार सज्जनता का चित्रण भी कितना सुन्दर किया है
दोहिं चिय पज्जतं बहुएहिं वि किं गुणेहि सुयणस्स ।
विज्जुप्फुरिओ रोसो मित्ति पाहाणरेह व्व ।। (गाथा - 42 )
अर्थात् सज्जन व्यक्ति के अनेक गुणों से क्या मतलब? क्योंकि उसके तो दो गुण ही पर्याप्त हैं- मेघ की बिजली के समान आया गया क्रोध तथा पाषाण की रेखा के समान मैत्रीभाव।
भक्तिपरक मुक्तक काव्य- (प्रमुख ग्रन्थ 16 )
इस विधा में स्तुतियों एवं स्तोत्र - साहित्य परिगणित है। प्राकृत भाषा में यह साहित्य भी प्रचुर मात्रा में लिखा गया, उसमें कुछ प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं
आचार्य भद्रबाहु (ई. पू. चौथी सदी) कृत उवसग्गहर-स्तोत्र, आचार्य कुन्दकुन्द (ई. पू. प्रथम सदी का अन्तिम दशक) कृत स्तुति-परक भक्ति - रचनाएं, तित्थयर- थुदि एवं निर्वाणकाण्ड - स्तोत्र, आचार्य समन्तभद्र ( दूसरी सदी) कृत अरिहन्त - स्तोत्र योगीन्द्रदेव (छठवीं सदी) कृत निजाष्टकम् ।
सि. च. नेमिचन्द्र (दसवीं सदी) कृत गोम्मटेस थुदि, आचार्य सोमसुन्दर सूरि ( लगभग 10वीं सदी) कृत जिनेन्द्रपंचक स्तोत्र, जो भाषा की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। कवि ने ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर जिनेन्द्रों की स्तुतियों में से प्रत्येक की एक साथ संस्कृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची एवं अपभ्रंश इन छः भाषाओं के क्रमशः एक-एक पद्य में स्तुति लिखी है। इस प्रकार इस स्तोत्र में प्रत्येक भाषा के 5-5 पद्य निबद्ध है और कुल मिलाकर 30 मुक्तक-पद्यों में उक्त जिनेन्द्रों की स्तुति की गई है। उदाहरणार्थ देखिये कवि शान्तिनाथ की स्तुति में कितनी आलंकारिक छटा बिखेरते हुए अपनी विनम्र भक्ति प्रदर्शित करता है
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कुज्जा कुज्जा वले वुम्मद मदणरिउ मत्त मातंगगामी,
सामी चामीकारा भज्जदि रुइरतणू णिव्वुदिं संतिणाधो । वंदे राजदि जस्सक्कमकमलवहा धम्मलच्छीण वासिं,
झिल्लंतीणं दण्डंदसपवरसरा कुंकुम्मीसिदव्वा ॥
अर्थात् वे शान्तिजिनेन्द्र कामरूपी शत्रु के मद को नष्ट करने वाले हैं, मदोन्मत्त गजराज के समान गमन करने वाले उनके चरण-कमल की वन्दना राजेन्द्रगण, देवता एवं असुर- गण भी किया करते हैं। वे परमानन्द स्वरूप हैं तथा पापों को दूर करने वाले हैं। इस प्रकार शोभन कवि (10वीं सदी) कृत ऋषभपंचाशिका, जनवल्लभसूरि (12वीं सदी) कृत लध्वजित शान्ति-स्तवनम्, मल्लिषेण कृत पद्मावती स्तोत्र अथवा
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