________________
78
स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
विशेषज्ञों (तत्कालीन इंजिनियर्स) तथा हनुमान के तत्वावधान एवं क्रियाशीलता के कारण अल्पकाल में ही ठोस समुद्री-मार्ग तैयार हो जाता है और राम अपनी वानर-सेना के साथ रावण की लंका में पहुंच जाते हैं।
यह महाकाव्य पांचवीं सदी के लेखक-वाकाटक-वंशी नरेश राजा प्रवरसेन द्वारा लिखित है। इस ग्रंथ के कथानक में रावणवध के बाद राम के विमान से लौटने की चर्चा तो है, लेकिन यह उल्लेख नहीं है कि उस सेतुबंध अर्थात् समुद्री-मार्ग को नष्ट या ध्वस्त कर दिया गया था। गउडवहो-कव्वं
महाकवि वाक्पतिराज (आठवीं सदी का पूर्वार्द्ध) द्वारा 1209 गाथा प्रमाण इस . ग्रंथ में गौड़देशाधिप का कन्नौज के राजा यशोवर्मा द्वारा वध का वर्णन किया गया है। इसकी भाषा महाराष्ट्री-प्राकृत है। इसमें बंगदेश, पंजाब, अयोध्या, पारसीकदेश, कन्नौज, कान्धार और मारवाड़ देश के प्रासंगिक वर्णन बहुत ही सुन्दर बन पड़े हैं। लीलावइकहा
प्रस्तुत ग्रंथ के लेखक महाकवि कुतूहल (कोऊहल 10वीं सदी) हैं। कवि ने इस ग्रंथ की भाषा को मरहट्ठ देसी-भाषा कहा है। इसमें प्रतिष्ठान (वर्तमान पैठण) के राजा सातवाहन तथा सिंहलद्वीप की राजकुमारी लीलावती की प्रेमकथा वर्णित है। दिव्य-लोक एवं मानव-लोक दोनों के पात्र इसके कथानक में होने के कारण कवि ने इस कथा को दिव्य-मानुषी कहा है। कुमारवाल चरियं
प्राकृत-व्याकरण के नियमों को स्पष्ट करने के लिये सुप्रसिद्ध प्राकृत-वैयाकरण आचार्य हेमचन्द्र (12वीं सदी) ने कुमारवाल-चरियं अपर-नाम द्वयाश्रय-महाकाव्य का प्रणयन किया। इसके आठ सर्गों में से प्रथम छह सर्गों में चालुक्यवंशी सम्राट कुमारपाल के चरित-वर्णन में प्रयुक्त शब्दावली में प्रयुक्त महाराष्ट्री प्राकृत के नियम एवं उदाहरण वर्णित हैं। शेष अन्तिम दो सगों में शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची और अपभ्रंश-भाषा के उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। प्रस्तुत काव्य का प्राकृत-साहित्य में वही महत्व है, जो संस्कृत में राघव-पाण्डवीय का।
उक्त महाकाव्य में आचार्य हेमचन्द्र ने एक ओर अपने शिष्य गुजरात के चौलुक्यवंशी सम्राट कुमारपाल का महाकाव्य-शैली में कृतित्व एवं व्यक्तित्व का चित्रण किया है साथ ही दूसरी ओर प्राकृत-व्याकरण के नियमों को भी ग्रथित कर अपनी चमत्कारी प्रतिभा का प्रभावक उदाहरण प्रस्तुत किया है। सिरिचिंध-कव्वं (श्रीचिन्हकाव्यम्)
कृष्ण-लीला वर्णन से संबंधित 12 सर्ग प्रमाण महाराष्ट्री-प्राकृत के इस ग्रंथ के लेखक का नाम है- कवि कृष्ण लीलांशुक (प्रथम आठ सर्गों के लेखक तथा उनकी मृत्यु के बाद उनके शिष्य दुर्गा प्रसाद द्वारा लिखित अन्तिम चार सर्ग) प्रस्तुत ग्रंथ का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें कृष्ण-लीलाओं के साथ-साथ प्राकृत वैयाकरण-वररुचि तथा त्रिविक्रम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org