________________
प्राकत-भाषा की प्राचीनता एवं सार्वजनीनता
73
मूल वर्ण्य-विषय-14 गुणस्थानों के विवेचन के साथ-साथ प्रासंगिक रूप में बाह्याडम्बरों तथा क्रियाकाण्डों और बौद्ध, चार्वाक, कौलिक एवं सांख्य-मतों का निरसन
और उत्तर-भारत में द्वादश-वर्षीय भीषण दुष्काल आदि की चर्चा के संदर्भो वाले आचार्य देवसेन (12वीं-13वीं सदी) कृत भावसंग्रह-ग्रंथ ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है क्योंकि उसकी अजमेर (राजस्थान)-प्रति की 48वीं गाथा में मूर्तिभंजक किसी एक तुर्क राजा का संदर्भ आया है। यथा
देवे हणिऊण गुणा लब्भहि जदि इत्थ उत्तमा केई।
तं तू तुरुक्कवंदणीया अवरे पारद्धिया सव्वे।।48।। अर्थात् यदि मूर्तियों का भंजन करने से किन्हीं उत्तम गुणों की प्राप्ति होती तो मूर्तिभंजक तुर्को तथा शिकारियों को भी उत्तम गुणों की प्राप्ति हो जाती तथा वे भी वन्दनीय हो जाते किन्तु ऐसा देखा-सुना तो नहीं गया।
प्रतीत होता है कि ग्रंथ के रचना-काल में मुहम्मद गजनी एवं शहाबुद्दीन गौरी की मूर्ति एवं स्थापत्य-भंजन की रोमांचक दर्दभरी घटनाओं की चर्चाएं हो रही होंगी, इसीलिये कवि ने सम्भवतः उनकी स्मृति में उक्त संदर्भ प्रस्तुत किया है।
उक्त आचार्य देवसेन-कृत दर्शनसार-ग्रंथ जैनदर्शन की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही किन्त उसमें उल्लिखित एक विशेष ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि उसके अनुसार गौतम-बुद्ध तीर्थंकर पार्श्वनाथ (ई. पू. 777) के तीर्थकाल में उत्पन्न हुए थे। उक्त ग्रंथ के अनुसार उसी समय की घटना है कि भ. महावीर का समकालीन, सरयू नदी के किनारे पर बसे पलाशनगर के मुनि पिहिताश्रव का शिष्य मुनि बुद्धकीर्ति आगमशास्त्र का प्रकाण्ड विद्वान था। किन्तु वह कठोर दिगम्बर जैन-चर्या का पालन न कर सकने के कारण उनके मार्ग से वह स्खलित हो गया था, जो बाद में मांसाहारी एवं मद्यपायी भी हो गया था तथा रक्ताम्बर-धारी बनकर क्षणिकवाद का प्रचारक बन गया था। यथा
सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्थे। पिहियासवस्स सिस्सो महासुदो बुद्धकित्ति मुणी।। तिमिपूरणासणेहि अहिगय पवज्जाओ परिभट्टो।
रत्तांवरं धरित्ता पवट्ठियं तेण एयंते।। (गाथा-6-7) (ख) -अर्धमागधी-आगम-साहित्य दर्शन, आचार एवं अध्यात्म का साहित्य तो है ही ज्ञान-विज्ञान, मनोविज्ञान, भूगोल, खगोल, गणित, इतिहास एवं संस्कृति का भी अपूर्व भण्डार है। उसका मूल सम्पादित एवं अनुदित भाग 38 खण्डों में प्रकाशित है। उसपर विविध टीकाएं, भाष्य, नियुक्तियां आदि भी लिखित एवं प्रकाशित हैं। यदि उसका मूल साहित्य तथा समीक्षा-साहित्य और उसके विविध संस्करणों का एक साथ संग्रह किया जाय तो उससे एक अच्छा वर्गीकृत ग्रन्थालय बन सकता है। उसकी विशालता एवं विविधता देखकर देश-विदेश के विख्यात प्राच्य विद्याविदों ने उसे ज्ञान-विज्ञान विशेषतया नीति एवं धर्म-कथाओं का अपूर्व कोश कहा है। वैशाली के मागधों एवं वैशालियों के संग्रामकालीन रथमसल-संग्राम एवं महाशिलाकण्टक-संग्राम. वनस्पतियों की जाति-प्रजातियों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org