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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
तथा अन्य समाज-शास्त्र से संबंधित विविध सिद्धान्तों के विवेचनों से युक्त वट्टकर (दूसरी सदी) कृत मूलाचार, श्रमणाचार वर्णन के साथ ही समकालीन सामाजिक रीति-रिवाजों के संदर्भो के साथ-साथ सांस्कृतिक एवं आर्थिक जीवन तथा Anatomy and Physiology पर वैज्ञानिक विवेचनों से समन्वित, पाणितलभोजी आचार्य शिवार्य (प्रथम सदी ईस्वी) कृत भगवती-आराधना-ग्रन्थ बड़ा ही लोकप्रिय सिद्ध हुआ है। उसपर विविध कालों में अनेक विस्तृत टीकाएं भी लिखी गई हैं। साधु-संघ में फैल रहे पाषण्ड की भर्त्सना देखिये कवि ने किस प्रकार की है
घोडगलिंडसमाणस्स तस्स अब्भतरम्मि कुधिदस्स।
बाहिर करणं किं से काहिदि बर्गाणहुदकरणस्स (गाथा-1374) - अर्थात् जो साधु बाबाडम्बर तो बहुत धारणा करता है किन्तु अपना अंतरंग शुद्ध नहीं रखता, वह घोड़े की उस लीद के समान है, जो ऊपर से तो सुन्दर सुडौल एवं चमकीली दिखाई देती है किन्तु भीतर से वह अत्यन्त दुर्गन्ध-पूर्ण है। ऐसे साधु का आचार बगुले के समान मिथ्या होता है।
चंचल-मन तथा रसलोलुपी इन्द्रियों का अवरोधन कर सुख, शान्ति एवं स्वस्थ-जीवन व्यतीत करने का मार्गदर्शन करने वाले स्वामि-कार्तिकेय (दूसरी सदी ईस्वी) कृत कार्तिकेयानुप्रेक्षा। स्वस्थ समाज एवं विश्व के नव-निर्माण हेतु व्यक्तिगत आचरण की शुद्धि को अनिवार्य घोषित करने वाले आचार्य वसुनन्दि (12वीं सदी) कृत वसुनन्दि-श्रावकाचार, जिसमें वर्णित श्रावकव्रतातिचारों की तुलना आधुनिक Indian penal code की समस्त धाराओं से की जा सकती है और जो प्राचीन भूगोल एवं खगोल संबंधी सिद्धान्तों की जानकारी देने वाला महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ श्रावकों अर्थात् सद्गृहस्थों की आचार-संचिता का बहुआयामी सुन्दर प्राकृत-ग्रंथ माना गया है।
कर्म-सिद्धान्त का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन के साथ-साथ भूगोल, खगोल एवं गणित का सुन्दर विवेचन करने वाले सिद्धान्त-चक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र (दसवीं-सदी) कृत गोम्मटसार, त्रिलोकसार आदि ग्रंथ। प्राच्य भूगोल एवं खगोल का मुनि पद्मनन्दि कृत (11वीं सदी) कृत जंबूदीव-पण्णत्ती। सष्टि-विद्या संबंधी सि. च. नेमिचन्द्राचार्य (दसवीं-सदी) कृत दव्व-संगहो भौतिक-विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि उक्त नेमिचन्द्राचार्य गोम्मटेश्वर बाहुबलि की मूर्ति के निर्माता तथा गंग-नरेश राजा राचमल्ल के प्रधान सेनापति चामुण्डराय के गुरु थे। इन्होंने ही उक्त विशाल-मूर्ति की प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न किया था तथा उक्त चामुण्डराय ने श्रवणबेलगोला में दिगम्बर-जैन-मठ की स्थापना कर उन्हें ही उसका प्रथम पट्टाधीश भी नियुक्त किया था।
उक्त गोम्मटसार-ग्रंथ के वर्ण्य-विषय इतने मार्मिक हैं कि महात्मा गांधी के शतावधानी गुरु रायचन्द्र भाई ने सभी तत्व-जिज्ञासुओं के लिये प्रतिदिन उसके स्वाध्याय की सलाह दी थी। उक्त ग्रंथ का प्रकाशन भी रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला के अन्तर्गत अगास (बम्बई से) किया गया था।
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