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________________ प्राकृत-भाषा की प्राचीनता एवं सार्वजनीनता 71 प्राकृत का धार्मिक-साहित्य _ (लगभग 200 से अधिक प्रमुख ग्रन्थ) (क) छक्खंडागम-सुत्त-साहित्य शौरसेनी-प्राकृत का आगम-साहित्य। इसका वर्ण्य-विषय छः खण्डों में वर्गीकृत होने से उसका षट्खण्डागम-सूत्र नाम पड़ा। इसके मूलभूत 6177 सूत्रों पर ईसा की प्रथम सदी से छठवीं-सातवीं सदी तक विभिन्न भाषाओं में 5 टीकाएं लिखी गई, जिनकी श्लोक संख्या लगभग पौने दो लाख थी किन्तु दुर्भाग्य से वे काल-कवलित हो गई। 9वीं सदी के प्रारम्भ में आचार्य वीरसेन स्वामी ने चित्रकूट (चित्तौड़, राजस्थान में एलाचार्य गुरु के पास प्राकृत-भाषा एवं जैन-सिद्धांत का गहन अध्ययन किया और उन्होंने उन्हीं छक्खंडागम-सुत्तों पर धवल, महाधवल एवं कसायपाहुड-सुत्त पर जयधवल इन तीनों की कल मिलाकर 132000 श्लोक-प्रमाण टीकाएं लिखी, जिनका प्रकाशन लगभग 12 निष्णात विद्वानों के लगभग 50 वर्षों तक के अथक परिश्रम के बाद सम्पादन-अनुवाद एवं समीक्षा के साथ 39 खण्डों अथवा विस्तत पृष्ठों वाले लगभग 20,000 पृष्ठों में सम्पन्न हुआ। युग की मांग को देखते हुए वर्तमान में इनका अंग्रेजी एवं कन्नड़-अनुवाद का कार्य भी प्रगति पर है। कसायपाहुड-सुत्त (अथवा पेज्जदोसपाहुड-सुत्तं) लेखनोपकरण-सामग्री की दुर्लभता के कारण आचार्य गुणधर ने कण्ठ-परम्परा से मूलभूत 16 सहस्र-पदों का सूत्र-शैली में सारांश 180 मूल गाथा-सूत्रों एवं 53 वृत्ति-सूत्रों में तैयार किया था। जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है - गंथोच्छेद भएण पवयण-वच्छल परवसीकय-हियएण एदं पेज्जदोस-पाहडं सोलस-पद-सहस्स पमाणं होतं असीदिसदमेत्त गाहाहि उवधारिदं। अर्थात् जिन आचार्य गुणधर का हृदय प्रवचन के वात्सल्य-भाव से भरा हुआ था, उन्होंने ही सोलह सहस्र पद प्रमाण प्रस्तुत पेज्जदोस-पाहुड (कसायपाहुड) के विच्छेद हो जाने के भय से उसे 180 गाथा-सूत्रों द्वारा अवधारित किया है। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है इस पर जयधवला नामकी टीका लिखी गई जिसका प्रकाशन 16 खण्डों के लगभग 8000 पृष्ठों में हुआ है। विद्वानों ने उक्त आचार्यों का काल ईसा पूर्व प्रथम सदी के लगभग निर्धारित किया है। इनके बाद ई. पू. प्रथम सदी के ही आचार्य कुन्दकुन्द का दर्शन, अध्यात्म, आचार एवं सृष्टि-विद्या संबंधी साहित्य विशेष महत्वपूर्ण है। उन्होंने 84 पाहुड ग्रंथों का प्राकृत-भाषा में प्रणयन किया था, जिनमें से वर्तमान में केवल 16 रचनाएं ही उपलब्ध हैं। बाकी की रचनाएं अद्यावधि अनुपलब्ध हैं। सामाजिक क्रान्ति की दृष्टि से इनका उपलब्ध अष्टपाहुड ग्रंथ विशेष महत्व का माना गया है। इसी प्रकार आर्यभट-पूर्वकालीन आचार्य जदिवसह (दूसरी-सदी) कृत पुराणेतिहास गोल एवं खगोल का आद्य प्राकृत जैन ग्रंथ-तिलोयपण्णत्ती, श्रमणों की आचार-संहिता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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