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________________ 70 34. 35. 36. 37. 38. 39. 40. 41. 42. 43. 44. 45. प्राकृत-व्याकरण प्राकृत- अनुशासन प्राकृत-व्याकरण (शाकल्य ) प्राकृत-व्याकरण (भरत) प्राकृत-व्याकरण (कोहल) प्राकृत-व्याकरण प्राकृत - चन्द्रिका प्राकृत- मणि- दीप प्राकृत-युक्ति प्राकृत शब्द रूपावली औदार्य चिन्तामणि स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ शुभचन्द्र ( अनुपलब्ध) पुरुषोत्तम (12वीं सदी) (अनुपलब्ध) ये तीनों ग्रंथ अनुपलब्ध हैं मार्कण्डेय ने इन तीनों के उल्लेख किए हैं। (अनुपलब्ध) हृषिकेश (अनुपलब्ध) शेषकृष्ण (अनुपलब्ध) अप्पय दीक्षित ( अनुपलब्ध) देवसुन्दर ( अनुपलब्ध) प्रतापविजय ( अनुपलब्ध) Jain Education International श्रुतसागर ( अनुपलब्ध) बाल्मीकि ( अनुपलब्ध) प्राकृत- सूत्र उक्त वैयाकरणों ने प्राकृत-व्याकरण पर लघु अथवा विस्तृत सूत्र - वृत्ति शैली में ग्रंथों की रचना की तथा उसकी विविध शैलियों में विविध कालों में व्याकरण-गत सिद्धान्तों का सोदाहरण विश्लेषण भी किया है। दुर्भाग्य से प्राकृत-व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान के विशिष्ट अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने पर भी प्राकृत का यह क्षेत्र अभी तक उपेक्षित ही रहा है। अतः अनुपलब्ध ग्रन्थों की खोज तथा उनके वैशिष्ट्य एवं तुलनात्मक अध्ययन किये जाने की महती आवश्यकता है। & इस प्रकार अभी तक देखा कि प्राकृत भाषा का उद्भव एवं विकास कैसे हुआ? ऋग्वेद - पूर्व की जन-भाषा के परिष्कृत रूप में ऋग्वेद की रचना हुई और उसकी भाषा को छान्दस् की संज्ञा प्रदान की गई। पुनः छन्दस् के परिष्कृत रूप से एक ओर लौकिक संस्कृत का जन्म हुआ, तो दूसरी ओर साहित्यिक प्राकृत का जन्म हुआ। भाषा - शास्त्रियों की दृष्टि से प्राकृत - प्राकृतिक स्वाभाविक जंगल के समान तथा संस्कृत, मनुष्य-प्रयत्न कृत के बंधनों में जकड़ी हुई- कबीर के शब्दों में संस्कृत कूपजल के समान तथा प्राकृत बहते नीर के समान थी। संस्कृत एवं प्राकृत दोनों ही सहोदरा हैं और एक दूसरे की पूरक सहयोगिनी भी। परवर्ती कालों में वे दोनों ही विश्व व्यापी बनीं। प्रत्यक्षतः और परोक्षत: दोनों ही भाषाओं ने विश्व की भाषाओं को प्रभावित किया। यद्यपि देश - विदेश के प्राच्य विद्याविदों ने दोनों ही भाषा के साहित्य का मूल्यांकन करने का प्रयत्न किया, फिर भी प्राकृत भाषा का विश्व की भाषाओं के साथ जैसा तुलनात्मक अध्ययन किया जाना चाहिये था, वह नहीं हो पाया है। अतः उसका विश्वजनीन रूप निर्धारित करने के लिए तुलनात्मक गम्भीर एवं विस्तृत अध्ययन एवं मूल्यांकन किया जाना अत्यावश्यक है। अब यहाँ प्राकृत-साहित्य के बहुआयामी वैभव पर भी सूत्र - शैली में विचार कर लिया जाय । सुविधा की दृष्टि से उसे छः भागों में विभक्त किया जा सकता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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