SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 60 स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ भोजपुरी, मगही, अवधी, हरयाणवी, मराठी, ब्रज अथवा अपने-अपने जनपदों की ग्रामीण बोलियों के प्रयोग करते हैं। बोली ही भाषा का रूप ले लेती है भाषा - शास्त्रियों के अनुसार किसी साहित्यिक- भाषा का विकास जनभाषा (या लोकभाषा) से होता है, किन्तु जब उसमें साहित्य-रचना की जाने लगती है, तो वह क्रमशः परिष्कृत होकर धीरे-धीरे स्थिर हो जाती है तथा वह ज्ञान-विज्ञान, कला, धर्म, संस्कृति, इतिहास एवं प्रशासनिक कार्यों की संवाहिका बन जाती है। उसका शब्द - भाण्डार स्तरीय एवं समृद्ध होने लगता है। सन्तकबीर के शब्दों में "संसकिरत है कूपजल पिराकिरत बहता नीर" अर्थात् संस्कृत के शब्द रूप और उसके प्रयोग व्याकरण-सम्मत होने लगते हैं, जबकि जन- भाषा अथवा बोलचाल की भाषा या बोली व्याकरण के अनुशासन से स्वतंत्र रहते हुए अपने स्वाभाविक रूप से ही प्रवहमान रहती है। यही नहीं, उसमें विविध परिवर्तन, शाब्दिक मिश्रण तथा विकास भी आते रहते हैं। इस कारण उसका साहित्यिक रूप जन-साधारण के लिये जटिल एवं दुरूह हो जाता है। जैसे दूडभ - दुर्लभ, सुवः स्वः, सुवर्ग स्वर्ग आदि। और, जब साहित्यिक भाषा का प्रभाव क्षेत्र शिक्षित वर्ग तक ही सीमित रह जाता है, तो साहित्यकार अपनी लोकप्रियता बढ़ाने की इच्छा अथवा व्यापक प्रभाव डालने के उद्देश्य से समकालीन जन- भाषा में लिखने लगते हैं, तब वह जनभाषा भी साहित्यिक भाषा बनकर व्याकरण के अनुशासन में आबद्ध हो जाती है और इस प्रकार दोनों अर्थात् पूर्ववर्त्ती - जन- भाषा तथा उसका ही परवर्त्ती परिवर्तित परिष्कृतरूप- साहित्यिक- भाषा की, शैली, व्याकरण, शब्द- भाण्डार और उसके उच्चारण में भी अन्तर स्पष्ट दिखाई देने लगता है। तात्पर्य यह कि साहित्यिक- भाषा का विकास जन-भाषा अथवा लोक-भाषा से होता है। सुप्रसिद्ध भाषा - शास्त्री डॉ. बहरी के शब्दों में- "किसी भी सभ्य देश में भाषा के दो रूप होते हैं- एक बोलचाल का और दूसरा साहित्य का, एक ग्राम्य का और दूसरा शहरी-नागरिक का। दोनों रूप, प्रारम्भ में एक होते हुए भी कालान्तर में भिन्न-भिन्न हो जाते हैं और एक साहित्य की शैली और शब्दावली (अथवा अल्पजनों द्वारा प्रयुक्त - भाषा) सामान्य जनता के लिये दुरूह और कठिन हो जाती है, तो बहुजन मान्य वही भाषा (बोली) उसका (साहित्यिक भाषा का) स्थान ले लेती है। " इस प्रकार बोली एवं भाषा का यह चक्र सहस्रों वर्षों से चला आ रहा है तथा आगे भी इसी क्रम से चलता रहेगा, इस सिद्धान्त में कहीं भी दो मत नहीं है। यदि हम बोली को प्राकृत-जनानामिदं अर्थात् प्राचीन जन-साधारण की वैचारिक अभिव्यक्ति को प्राकृत अर्थात् बोली तथा उसके परिष्कृत रूप को संस्कृत अर्थात् 'भाषा कहें, तो इसमें कोई असंगति नहीं होगी। भाषाओं का यह द्विविध प्रकार, संसार में हर जगह पाया जाता है। किसी भी देश की अभिव्यक्ति के माध्यम की प्रारम्भिक बोली- प्राकृत (अर्थात् जन-साधारण की स्वाभाविक बोली ) कही जाती है तथा युगीन परिस्थितियों के कारण जब उसमें संस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy