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प्राकृत भाषा की प्राचीनता एवं सार्वजनीनता
प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन*
बोली और भाषा : अन्तर
देश-विदेश के प्राच्य - विद्याविदों ने अपने दीर्घकालीन भाषिक अध्ययन के बाद इस तथ्य की खोज की है कि मानवीय विचारों के आदान-प्रदान में जिस माध्यम का प्रयोग किया जाता रहा है, उसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1) बोली एवं (2) भाषा ।
साधारणतया बोली एवं भाषा में लोग अन्तर नहीं मानते, किन्तु व्याकरण और भाषा - विज्ञान की दृष्टि से उन दोनों में भारी अन्तर है। उनके अनुसार बोली का क्षेत्र व्यापक होता है जबकि भाषा का क्षेत्र सीमित ।
जन-साधारण (अर्थात् प्राकृत-जन ) सामान्यतया अपने दैनिक जीवन में जिस भाषा का प्रयोग करता है, उसे "बोली" कहा जाता है, जो कि व्याकरण के नियमों से आबद्ध नहीं होती। वक्ता की सुविधा के अनुसार शब्द-रूप बनते-बिगड़ते रहते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते कि बोली अशिक्षित या अर्ध- शिक्षित आदि, जन-सामान्य की उच्चारण-सुविधा के अनुसार बोली जाती है और उसे 'हाथी जाती है" 'दही खट्टी है ' में भी व्याकरण-दोष दिखाई नहीं देता। उसे अमरूद को अमदुर, सड़क को सरक, मतलब को मतबल, लखनऊ को नखलऊ के प्रयोग भी गलत महसूस नहीं होते। किन्तु 'भाषा' में ऐसा नहीं होता क्योंकि वह तो व्याकरण के नियमों में बंधी रहती है। भाषा में व्याकरण के नियमों की यत्किंचित् भी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
लोकभाषा एवं देवभाषा
भाषा - शास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक युग में (जन - भाषा या बोलचाल की भाषा अर्थात्) प्राकृत तथा (देवभाषा या साहित्यिक भाषा अथवा ) संस्कृत, निरन्तर एक साथ चलती रही हैं। संस्कृत नाटकों में संस्कृत भाषा का प्रयोग जहां शिक्षित, सभ्य तथा उच्चकुलीन व्यक्तियों से कराया गया है, वहीं पर प्राकृत का प्रयोग साधारण श्रेणी के पात्रों और महिलाओं के द्वारा कराया गया है। वर्तमान में भी यही देखा जाता है कि सभ्य-वर्ग तथा नगर - निवासी-जन साहित्यिक भाषा का प्रयोग करते हैं जबकि ग्रामीण जनता राजस्थानी,
* बी-5/40सी., सेक्टर-34, धवलगिरि, नोयडा - 201301.
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