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डॉ. हीरालाल जैन : ग्रंथ परिचय
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कार्यसिद्धि आसक्ति और निषिद्ध व्यापार से नहीं होती उसके लिए आंतरिक शुद्धि और सदाचार ही एकमात्र उपाय है।
मयणपराजय एक रूपक काव्य है। अतः इसमें सादृश्यमूलक अलंकारों का स्वाभाविक बाहुल्य है। छठवीं शताब्दी में मात्रिक छंदों का असाधारण विकास हुआ है। तुकबन्दी के अविष्कार से छंदों का प्रयोग 'मयण पराजय' में दृष्टव्य है। इस ग्रंथ में बड़ी अर्थगर्भित सूक्तियां मिलती हैं। यह रचना व्याकरणिक दृष्टि से आधुनिक आर्य भाषाओं को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। सुअंधदहमी कहा (ज्ञानपीठ 1966)
इस ग्रंथ के रचयिता कविवर उदयचंद थे जो बाद में दीक्षा लेकर मनि हो गये। इनका निवास और बिहार क्षेत्र मथुरा और भरतपुर राज्य का भूमिभाग रहा है। सुगंध दशमी का रचना काल 1150 ई. माना गया है। सुखलिप्सा की चेतना मनुष्य में आदिकाल से रही है। इसी प्रेरणा से वह कर्म करता है और प्राकृतिक शक्तियों का आह्वान कर उनकी पूजा स्तुति से उन्हें प्रसन्न कर दु:ख निवारण तथा सुख साधन की चेष्टा करता है। सुगन्ध दशमी कथा के मूलतत्वों का दर्शन हमें महाभारत के मत्स्यगंधा प्रसंग से लेकर अन्य अनेक प्रसंगों में मिलता है। प्रायः हर कथानक में मुनिनिरादर के पाप से दुर्गन्धित शरीर और नीच योनि प्राप्ति की परंपरा दृष्टिगोचर होती है। यज्ञानुष्ठान, अवमृथस्थान, गुरुसेवा और मुनि-आशीष से उसे पुनः उत्तम कुल और गंधमादन देह प्राप्त होती है। इस कथा में भी मुनि के प्रति
र्भाव के कारण जो रानी दुःखी और दरिद्री और दुर्गन्धा हुई थी वहीं सुगन्धदशमी व्रत के पुण्य से पूर्वोक्त पाप को धोकर पुनः रानी बन गई।
डॉ. हीरालाल जैन ने इसी वस्तु और प्रसंग पर रचित संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, मराठी कथाकाव्यों का विवेचन किया है। यही नहीं उन्होंने इन भाषाओं की रचनाओं को मूल और हिन्दी अनुवाद सहित ग्रंथ के कलेवर में तुलनात्मक अध्ययन हेतु स्थान भी दिया है। इन भारतीय भाषाओं की कथा साम्य और भिन्न विशेषताओं को रेखांकित करने के साथ ही उन्होंने फ्रेंच और जर्मन भाषा में उपलब्ध अंग्रेजी कथानक सिंड्रेला का आकर्षक विश्लेषण भी प्रस्तावना में रखा है। इस प्रसंग में उनका लेख 'पैरालिजिम ऑव टेल्स बिटवीन अपभ्रंश एण्ड वेस्टर्न लिटरेचर' अत्यंत महत्वपूर्ण है। ग्रंथ में अपभ्रंश की सुंगधदशमी कथा की चित्रमय मूल रचना की आर्ट पेपर पर मुदित 67 प्लेटें मनोज्ञ हैं। कहकोसु-ले. श्रीचंद (लघु कथाएं)
श्रीचंद का कथाकोष अपभ्रंश भाषा में लिखा गया है। इसमें लोकजीवन की सामाजिक चेतना और वर्ग-भेद के असामान्य स्तर को प्रस्तुत करने वाली लघु कथायें हैं। वर्ग चेतना कभी संघर्ष में परिणित नहीं हई। जैन प्रभावना और मुनि उपदेश तथा उससे प्राप्त अनुभूत पूर्व जन्म ज्ञान के उदय से वर्ग भेद तिरोहित होकर समता भाव प्रकट होता है। कषायजन्य पीड़ा की आवृत्ति से मोक्ष पाने के परम लक्ष्य को सामने रखकर कथा पात्र तप-साधना और मोक्ष-प्राप्ति के उद्देश्य से मुनि और तापस जीवन का इहलोक में सुख और स्वर्ग में वैभव और शांति प्राप्त करने के लिए प्रवृत्त होते हैं। इन कथाओं का प्राण
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