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________________ डॉ. हीरालाल जैन : ग्रंथ परिचय 53 अनुयायी वेदों की प्रामाणिकता नहीं मानते। न ही यज्ञादि क्रियाकाण्ड को ग्रहण करते हैं। श्रमण मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों में विशुद्धि पर जोर देते हैं। वे इन्द्रियनिग्रह और परिग्रहत्याग को आत्मशुद्धि के लिए आवश्यक समझते हैं और अहिंसा को धर्म का अनिवार्य अंग मानते हैं। विरोध में सामंजस्य जैनधर्म की उदार दृष्टि है जो उसके स्याद्वाद और नयवाद में पायी जाती है। इसीलिये कहा गया है कि जैन नागरिक अपने अनेकान्त मिथ्यामतों के समह में ही पर्ण सत्य देखने का प्रयत्न करता है। यही जैनधर्म की ष्टीय भमिका है। यही उसकी सामाजिक चेतना है। यदि हम अनेकात्मक विचार सरणि और अहिंसात्मक वृत्ति को अपना लें तो दुखों से मुक्ति मिल सकती है और समाज में शांति, सुख और बंधुत्व स्थापित किया जा सकता है। इतिहास और संस्कृति (म. प्र. साहित्य परिषद 1962) 'जैन इतिहास की पूर्व पीठिका और हमारा अभ्युत्थान' नामक एक कृति हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, मुंबई द्वारा सन् 1939 में प्रकाशित की गई थी। वस्तुतः यह रचना प्रोफेसर हीरालाल जैन द्वारा उनकी प्रथम संतति रामकली देवी के 21 वर्ष की अल्पायु में स्वर्गारोहण पर उनकी स्मृति में जामाता श्रीमान सेठ रामकरण लाल थाला निवासी के उद्विग्न चित्त को शांति प्रदान करने हेतु किये गये अन्यान्य उपक्रमों का एक अंग थी इस पुस्तक की सामग्री प्रो. हीरालाल जी के ग्रंथों, पत्र-पत्रिकाओं और व्याख्यानों द्वारा पूर्व में ही प्रकाश में आ चुकी थी। लेकिन इस सामग्री के व्यवस्थित और स्थायित्व की कामना में पुस्तकारूढ़ आ जाने से जनमानस पर प्रोफेसर जैन की चिन्तनधारा का एकीकृत प्रभाव वांछित उद्देश्य की पूर्ति में सहायक हुआ है। इस ग्रंथ की सामग्री दो भागों में है। पहला भाग इतिहास है जिसमें जैन इतिहास की पूर्व पीठिका, हमारा इतिहास, प्राचीन इतिहास निर्माण के साधन और भिन्न प्रांतों में जैनधर्म के प्रसार का विवरण है। दूसरा भाग समाज शीर्षक से है। इसमें हमारा अभ्युत्थान, संस्कृति की रक्षा, समाज संगठन और धर्म प्रभावना के उपाय समयोचित उपाय सुझाये गये हैं। भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद ने भोपाल में डॉ. हीरालाल जैन के चार व्याख्यान आयोजित किये थे। 7, 8, 9 और 10 मार्च 1960 को दिये गये व्याख्यानों के विषय थे- जैन इतिहास, जैन साहित्य, जैन दर्शन और जैन कला। इन व्याख्यानों की अध्यक्षता क्रमशः मुख्यमंत्री डॉ. कैलाशनाथ काटजू, विधानसभाध्यक्ष पं. कुंजीलाल दुबे, म. प्र. के वित्तमंत्री श्री मिश्रीलाल गंगवाल और प्रदेश के शिक्षामंत्री डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने की। विषय की रोचकता और उसके महत्व को देखते हुए प्रदेश के शिक्षामंत्री के अनुरोध पर व्याख्यानों को पल्लवित कर पुस्तकारूढ़ प्रकाशन हेतु पाण्डुलिपि तैयार की गई। म. प्र. शासन साहित्य परिषद ने उपर्युक्त शीर्षक से प्रथम संस्करण 1962 में और पुनर्मुद्रण 1975 में प्रकाशित किया। पुस्तक की लोकप्रियता इसी से प्रमाणित होती है कि इसके मराठी और कन्नड़ भाषाओं में अनुवाद के एकाधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उसका अंग्रेजी अनुवाद शताब्दी वर्ष में प्रकाशित किया जा रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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